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४०२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
अधिक- ये जीवन के तीन सूत्र मान लिए गए हैं। इस दृष्टिकोण ने कुछ लोगों को भोगी बना दिया, कुछ लोगों को अभाव ग्रस्त और दीन हीन बना दिया । भोगवादी दृष्टिकोण सचमुच एक बहुत बड़ी समस्या हो गई है। अतिभोग ने कई रोगों को भी जन्म दिया है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति की ही उपज है- मानसिक असंतुलन, अतृप्ति और मानसिक तनाव ।
भोग का संबंध इन्द्रिय जगत् से है । पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय हैशब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध। आज व्यक्ति पूर्णतः इन्द्रियों का गुलाम बना हुआ है। इन्द्रियों की प्रेरणा से आकांक्षाएँ उत्पन्न होती है और इनकी पूर्ति के लिए मनुष्य दिन-रात प्रयत्न करता है। इस वैज्ञानिक युग ने सामग्री अतिमात्रा में उपलब्ध कराई है। उसका परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति की आकांक्षा पूर्ति ने अब घोर अतृप्ति का रूप ले लिया है। आज हम बाजार में जीवन में अतृप्ति को बढ़ाने के लिए उतनी सामग्री बेच रहें है जितनी शरीर के लिए बिलकुल आवश्यक नहीं है। पुद्गल के परिभोग में तृप्ति ? यह एक असंभव बात है चाहे जितने पुद्गलों अर्थात् भौतिक सुख-सुविधाओं का भोग करिए, अतृप्ति की आग सुलगती ही रहेगी । उ. यशोविजयजी ने इसका चित्रांकन 'अध्यात्मसार' ग्रंथ में करते हुए कहा है कि “अग्नि में ईंधन डालने से अग्नि शांत नहीं होती वरन् उससे तो अग्नि की शक्ति बढ़ती है और लपटों में वृद्धि होती है। ऐसे ही जगत् के पौद्गलिक विषयों के उपभोग से तृप्ति तो नहीं होती परन्तु अतृप्ति की आग बढ़ती है।७६१ आज हम देख रहे हैं कि जिस राष्ट्र में भोगवादी दृष्टिकोण जितना अधिक प्रबल है, उतनी ही अधिक समस्याएँ भी वहाँ है । उपभोक्तावादी संस्कृति के कई दुष्परिणाम सामने आए हैं। आत्महत्या, जघन्य अपराध, हिंसा, मानसिक तनाव, मादक वस्तुओं के सेवन की प्रवृत्ति, तस्करी के द्वारा अधिकतम धन उपार्जन की मनोवृत्ति आदि कई समस्याएँ खड़ी हुई है। जब तक विकसित राष्ट्र और विकसित समाज की परिभाषा आर्थिक सम्पन्नता और साधन सामग्री की प्रचुरता के आधार पर होगी तब तक चारित्रिक पतन, भ्रष्टाचार और तनावग्रस्तता की समस्याओं के समाधान सम्भव नहीं है। वही समाज और राष्ट्र विकसित है जिसका आध्यात्मिक बल उन्नत है। जिसका चारित्रिक बल उठा हुआ है। इस दृष्टि में वर्तमान वैश्विक समस्याओं का समाधान छिपा हुआ है।
७६१. विषयैः क्षीयते कामो नेन्थनैरिव पावकः
प्रत्युत प्रोल्लसच्छक्तिर्भूय एवोपवर्द्धते । ।४ ।। वैराग्यसंभवाधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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