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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ४०१
भी वास्तविक एवं चिरस्थायी, सुदृढ़ विश्वशांति की आवश्यकता अनुभव की जाएगी और उसके लिए दूरदर्शितापूर्ण हल खोजा जाएगा तो वह हल एक ही होगा"जन-जन के मन में अध्यात्मवाद और नैतिक चेतना का विकास"।
आज विश्व में अनेक समस्याएँ है। हम उन समस्याओं को तथा उनके निराकरण में अध्यात्मवाद का क्या अवदान हो सकता है? यह प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। उसके पहले यहाँ यह बताना आवश्यक हैं कि आज विश्व के प्रायः सभी धर्म कर्मकाण्ड प्रधान हो गये है। धर्म में जो अध्यात्म का पक्ष होना चाहिए वह गौण या प्रायः समाप्त ही हो गया है। आज धर्म आत्मविशुद्धि का साधन नहीं रह गया है। विज्ञान के इस युग में कर्मकाण्ड से भरपूर अथवा स्वर्ग के प्रलोभन और नरक के भय के आधार पर खड़े हुए धर्म का कोई मूल्य नहीं है।
धर्म को कर्मकाण्डात्मक मान लेने पर देश काल और परिस्थिति के अनुरूप कर्मकाण्ड में अन्तर आता है तथा कर्मकाण्ड में अन्तर आने पर धर्म में भेद उत्पन्न होते हैं। ये धार्मिक मतभेद धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों के कारण होते हैं। आज जिस धर्म की आवश्यकता है उसे स्वर्ग के प्रलोभन या नरक के भय के आधार पर खड़ा नहीं किया जा सकता है अपितु आज एक ऐसे धर्म की आवश्यकता है। जिससे पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सद्भावना और सहिष्णुता पैदा की जा सके इसलिए विनोबाजी का यह कहना सत्य है कि आज धर्म अर्थात् कर्मकाण्ड प्रधान धर्म की आवश्यकता नहीं है, आज आवश्यकता है विशुद्ध आध्यात्मिक धर्म की। उपाध्याय यशोविजयजी के अध्यात्मोपनिषद, अध्यात्मसार और ज्ञानसार में जिस धर्म का चित्रण किया गया है वह धर्म एक प्रायोगिक धर्म है और उसका आधार है अध्यात्म। उसके द्वारा मानव समाज में शान्ति, सौहार्द और सहिष्णुता की वृद्धि की जा सकती है। अतः हम इन्हीं ग्रंथों का आधार लेकर विश्व की विभिन्न समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास करेंगे। १. उपभोक्तावादी दृष्टिकोण एक जटिल समस्या -
___ असीम इच्छाएँ, असीम आवश्यकताएँ और असीम पदार्थों की उपलब्धि आज मानव इसी चिन्तन के रंग में रंगा हुआ है। इसी मानस ने जन्म दिया है पदार्थ प्रधान संस्कृति को। 'खाओ, पीओ और मौज करो।' आज जीवन का प्रवाह इसी दिशा में मुड़ गया है। वर्तमान की आर्थिक व्यवस्था और अवधारणा ने व्यक्ति को भोगवादी बनाया है। उत्पादन अधिक, अर्जन अधिक और भोग
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