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________________ ३६५/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री चतुर्थ गुणस्थान पर भी जीवों में बाह्यदृष्टि से अविरति दृश्यमान होने पर भी वे आसक्ति रहित हो सकते हैं अतः चतुर्थ गुणस्थान पर रही हुई. आत्मा को भी विचार पक्ष से अन्तरात्मा कह सकते हैं, इसलिए उसकी गणना जघन्य अन्तरात्मा में की गई है। पाँचवें गुणस्थान देशविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती तक की सभी आत्माएँ मध्यम अन्तरात्मा कहलाती हैं। पंचम गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक आत्मविशुद्धि निरंतर बढ़ती है, किन्तु कम या अधिक कषाय की सत्ता सभी में रही हुई है, उस दृष्टि से इन्हें मध्यम अन्तरात्मा कहा गया है। बारहवें गुणस्थान पर रहीं हुई आत्माएँ उत्कृष्ट अन्तरात्मा कहलाती हैं, क्योंकि इस गुणस्थान पर कषाय की सत्ता नहीं रहती हैं, सम्पूर्ण कषायों का क्षय हो जाता है। मोहनीयकर्म का अंश भी नहीं रहता है। परमात्म अवस्था तक पहुँचने में मात्र अन्तर्मुहूर्त समय ही बाकी रहता है, अतः इसे अन्तरात्मा की उत्कृष्ट अवस्था कह सकते हैं। तेरहवाँ सयोगीकेवली तथा चौदहवाँ अयोगीकेवली-ये दो अवस्थाएँ परमात्मपद की सूचक हैं। उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में इस बात पर प्रकाश डालते हुए कहा है"जितने भी गुणस्थानक हैं तथा जितनी भी मार्गणाएँ हैं-दोनों में से किसी के साथ भी परमात्मा का कोई संबंध नहीं है।" यह बात उन्होंने सिद्धपरमात्मा को दृष्टि में रखते हुए कही है। अध्यात्मसार में उन्होंने परमात्मा की जो व्याख्या की है, वह भी परमात्मा के सिद्धस्वरूप को स्पष्ट करती है। अध्यात्मसार में उन्होंने कहा है- "केवलज्ञान योगनिरोध और सभी कर्मों का नाश तथा सिद्धशिला में वास होता है तब परमात्मा व्यक्त होता है।"५६ यह व्याख्या भी उन्होंने सिद्ध परमात्मा को लक्ष्य करके ही की है, अतः हम कह सकते हैं कि अरिहंत परमात्मा सयोगीकेवली दशा में तेरहवें गुणस्थान में होते हैं तथा जब योग का निरोध करते हैं, तब चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान में होते हैं, किन्तु सिद्धों का कोई भी गुणस्थान नहीं होता है, वे गुणस्थान अतीत हैं। ७५८. यत्र तत्र रतिनमि विरक्तत्वं तदापि ते ।।१३। (क) वीतरागस्तोत्र १२/४ (ख) अध्यात्मसार गुणस्थानानि भावति यावन्त्यश्चापि मार्गणाः। तदन्यतरसंश्लेषो, नैवात. (रमात्मनः ।।२८ ।। -अध्यात्मोपनिषद-उ. यशोविजयजी ज्ञानं केवलसंज्ञं योगनिरोधः समग्रकर्महतिः। सिद्धिनिवासश्च यदा परमात्मा स्यत्तदा व्यक्तः ।।२४।। -अनुभवाधिकार-अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी ७५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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