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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३६७ उ. यशोविजयजी कहते हैं- “चारित्रमोहनीयकर्म की महिमा ही ऐसी है कि अन्य हेतु का योग होने पर भी फल का अभाव दिखता है । ७५५ चौथे गुणस्थान पर रहे हुए जीव को भवस्वरूप का ज्ञान, भव की निगुर्णता के दर्शन, तत्त्व में श्रद्धा आदि कारण उपस्थित होने पर भी विरति (त्याग) नहीं होती है। प्रश्न यह उठता है कि अविरतसम्यग्दृष्टि बहिरात्मा है या अन्तरात्मा ? अविरतसम्यग्दृष्टि सत्य को जानते हुए भी उसे जीने में असमर्थता का अनुभव करता है। वह यह जानता है कि हेय क्या है, उपादेय क्या है? वह जहर को जहर समझते हुए भी उसका त्याग नहीं कर सकता है, क्योंकि अनंतानुबंधीकषाय के नष्ट होने पर भी अप्रत्याख्यानीकषाय का उदय रहता है। दर्शनमोहनीयकर्म के क्षय होने पर भी चारित्रमोहनीयकर्म उदय में रहता है। उसकी जीवनदृष्टि सम्यक् होती है, लेकिन उसका आचारपक्ष शिथिल होता है । उसका जीवन भोगपरक होता है। जो विचारक यह मानते हैं कि सत्य केवल जानने का विषय नहीं है जीने का विषय है उनकी दृष्टि में अविरत बहिरात्मा है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अविरतसम्यग्दृष्टि आचार की अपेक्षा से बहिरात्मा है, किन्तु विचार की अपेक्षा उसे एकान्त रूप से बहिरात्मा नहीं कह सकते हैं। उ. यशोविजयजी का कहना है - " चौथे गुणस्थान पर वैराग्य सर्वथा नहीं होता है - ऐसा नहीं है। स्वभाव-रमणता द्वारा आसक्ति का हरण हो जाता है। "७५६ अर्थात् विषयों में प्रवृत्ति होने पर भी आसक्ति नहीं होती है, अतः विषय वासना में जीते हुए भी उसके वासना के संस्कार दृढ़भूत नही होते हैं। वह विषयों के स्वरूप के ज्ञान के द्वारा आसक्ति की तीव्रता को कम करता रहता है। इसी बात को आचार्य हेमचन्द्र ने भी वीतरागस्तोत्र में स्पष्ट करते हुए कहा है कि परमात्मा जब पूर्वभव में देवेन्द्र या चरम भव में राजा या चक्रवर्ती का पद प्राप्त करते हैं तब चौथा गुणस्थान ही होता है। तीर्थंकर के भव में भी जब तक सर्वविरतिधर न हो तब तक चौथा गुणस्थान ही होता है। वे ऐश्वर्य को भोगते हैं, तब उनमें रति का आभास होता हैं किन्तु वास्तव में तो उसमें भी विरक्ति ही रहती है । ७५७ ७५५ ७५६ ७५७ सत्यं चारित्रमोहस्य महिमा कोऽप्ययं खलु । यदन्यहेतुयोगेऽपि फलायोगोऽत्र दृश्यते । । ११ । । - वैराग्यसंभव अधिकार - ५, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी दशाविशेषे तत्रापि न चेदं नास्ति सर्वथा । स्वव्यापारउत्तासंगं तथा च स्तवभाषितम् ||१२|| वैराग्यसंभवाधिकार-अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी यदा मरुन्नरेन्द्र श्रस्त्वया नाथापभुज्जयते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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