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३६६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
चौदह गुणस्थानकों का त्रिविधआत्मा से सम्बन्ध __ चौदह गुणस्थानकों के स्वरूप को जानने के बाद अब प्रश्न यह उठता है कि इन चौदह गुणस्थानकों का बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा से क्या सम्बन्ध है ? बहिरात्मा पतित अवस्था है, अन्तरात्मा विकासशील अवस्था है और परमात्मा विकसित अवस्था है।
इसमें प्रथम गुणस्थानक पर रहे हुए जीव को तीव्र बहिरात्मा कहा गया है, क्योंकि प्रथम गुणस्थान पर रहे हुए जीवों में विषयकषाय की बहुलता रहती है
और वे अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए आत्मस्वरूप को नहीं समझते हैं। परवस्तुओं पर गाढ़ ममत्व रहता है। इन जीवों में हेय-ज्ञेय-उपादेय तत्त्वों का वास्तविक ज्ञान नहीं होने के कारण इन्हे तीव्र बहिरात्मा कहा गया हैं। प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थानक पर अनंतानुबंधीकषाय का उदय रहता है, जो जीव के बहिरात्म पाने का सूचक है।
सास्वादनगुणस्थान और तीसरा मिश्रगुणस्थान भी वस्तुतः बहिरात्मा के ही रूप हैं। गुणस्थान-सिद्धान्त में इनको भी आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था माना गया है। यद्यपि इन गुणस्थानों में पहले गुणस्थान की अपेक्षा आत्मशुद्धि कुछ अधिक अवश्य होती है, इसलिए इनका क्रम प्रथम गुणस्थानक के बाद आता है। सास्वादनगुणस्थान की अधिकारिणी ऊपर के गुणस्थानों से पतित होने वाली आत्मा ही होती है। ऊपर के गणस्थानों से अधःपतन होने का कारण मोह का उद्रेक है, इस कारण इस गुणस्थान में मोह की तीव्र काषायिक-शक्ति का आविर्भाव पाया जाता है, अतः सास्वादनगुणस्थान भी बहिरात्मभाव का सूचक है। सास्वादनगुणस्थान पर रहे हुए जीव को मध्यम बहिरात्मा भी कह सकते हैं।
तीसरा गुणस्थान आत्मा की उस मिश्रित अवस्था का परिचायक है, जिसमें आत्मा न तो सम्यग्दृष्टि होती है और न ही मिथ्यादृष्टि। इस गुणस्थानवर्ती आत्मा में निर्णय करने की क्षमता नहीं होने से वह न तो एकान्तरूप से तत्त्व को अतत्त्व मानती है और न ही अतत्त्व को तत्त्व मानती है। वह तत्त्व-अतत्त्व का पूर्ण विवेक नहीं कर पाती हैं, इसलिए इसमें अवस्थित आत्मा भी बहिरात्मा ही कहलाती है। इसे मंद बहिरात्मा कह सकते हैं।
चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की अवस्थाएँ अन्तरात्मा की सूचक हैं। चौथा गुणस्थान अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है। शब्द से ही अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन के होने पर भी सम्यक् चारित्र नहीं होता है।
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