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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३६३ अनिवृत्तिकरण के अन्त तक उदय में आने वाले कर्मदलिकों के साथ और कछ को अन्तर्मुहूर्त बीतने के बाद उदय में आने वाले कर्मदलिकों के साथ कर दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक अन्तर्मुहूर्त काल मिथ्यात्वमोहनीय के कर्मदलिक से रहित हो जाता है।"७५२ इसका सामान्य चित्र निम्नांकित है १ संख्यातवां भाग __ अंतकरण अनिवृत्तिकरण संख्याताभाग बड़ी स्थिति मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति मिथ्यात्व के दलिक | मिथ्यात्व की से रहित द्वितीय स्थिति अन्तर्मुहूर्त्तकाल औपशमिक सम्यक्त्व प्रथम स्थिति जब पूर्ण होती है और जीव जैसे ही अंतकरण में प्रवेश करता है, वैसे ही वहाँ मिथ्यात्व के दलिक नहीं होने से वह उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करता है। ___ लोकप्रकाश०५३ में दृष्टान्त देते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार वन में लगा हुआ दावानल आगे बढ़ते हुए जब ऊसरभूमि या जले हुए काष्ठादि को प्राप्त कर दाह्यवस्तु नहीं मिलने से स्वयं ही बुझ जाता है, उसी प्रकार यह मिथ्यात्वरूपी दावानल भी अंतकरण के प्रथम समय ही शांत हो जाता है और औपशमिकसम्यक्त्व प्रकट होता है। सम्यक्त्व की इस विशुद्धि के द्वारा दूसरी स्थिति में जो उपशान्त मिथ्यात्वमोहनीय है, वह भी तीन भागों में विभाजित हो जाती है, जिसे शास्त्रों में त्रिपुंजीकरण कहा गया है। इन्हें क्रमशः- १. सम्यक्त्वमोहनीय २. मिश्रमोहनीय और ३. मिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं। ७५२ ७५३ आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं एवं पूर्णता /१६- आचार्य जयन्तसेन यथा वनदेवो दग्धेन्धनः प्राप्या तृणं स्थलम्। स्वयं विध्यायति तथा मिथ्यात्वोग्रदवानलः।। अवाप्यान्तर करणं क्षिप्रं विध्यायति स्वयम्। तदौपशमिकं नाम सम्यक्त्वं लभतेऽसुभान्। लोकप्रकाश गाथा ३/६३१-६३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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