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________________ ३६४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री सम्यक्त्वमोहनीय सत्य पर श्वेत काँच का आवरण है, जबकि मिश्रमोह हल्के रंगीन काँच का और मिथ्यात्वमोह गहरे रंग के काँच का आवरण है। ___ उपशमसम्यग्दर्शन के अन्तर्मुहूर्त का काल जब समाप्त हो जाता है, तो पुनः दर्शनमोह के पूर्व में विभाजित तीन वर्गों में से किसी भी वर्ग की कर्मप्रकृति का गुणश्रेणी के अनुसार उदय हो सकता है। यदि प्रथम उदय सम्यक्त्वमोह का है, तो आत्मा विशुद्ध आचरण करती हुई विकासोन्मुख हो जाती है, लेकिन मिश्रमोह या मिथ्यात्वमोह का उदय होने पर आत्मा पुनः पतनोन्मुख हो जाती है। प्रथम गुणस्थानक आने के बाद सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की उद्वलना करके दोनों के दलिकों को जीव पुनः मिथ्यात्वमोहनीय में प्रक्षेपित करता है। उसमें यदि सम्यक्त्व मोहनय की उद्वलना चल रही हो और उस समय जीव जो सम्यक्त्व प्राप्त करे तो उसे क्षयोपशमसम्यक्त्व प्राप्त होता है और जो मिश्रमोहनीय की उद्वलना चल रही हो उस समय भावो की विशुद्धि हो तो मिश्रगुणस्थानक को प्राप्त करता है। यदि दोनों की उद्वलना पूर्ण हो गई, अर्थात् सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय दोनों के दलिक मिथ्यात्वमोहनीय में पूर्णतः रूपान्तरित हो जाते है, तो सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए पुनः ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया करनी होती है, फिर भी एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने के बाद इतना तो निश्चित हो जाता है कि वह एक सीमित समयावधि में आध्यात्मिक-विकास की पूर्णता को प्राप्त कर ही लेगा। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद आत्मा को अपूर्व आनंद प्राप्त होता है। अर्द्धसफलता में ही सन्तुष्ट नहीं होने के स्वभावानुसार वह विकासगामिनी आत्मा आत्मिकसुख की पूर्णता प्राप्त करने के लिए लक्ष्य में अवरोधक मोहनीयकर्म की दूसरी शक्ति चारित्रमोह पर आक्रमण कर उसे शिथिल करने का प्रयास करती है। आंशिक सफलता मिलने पर अर्थात् अल्पविरति के प्राप्त होने पर चौथी भूमिका से अधिक उसे शान्ति का लाभ प्राप्त होता है। अब वह देश विरति में सर्वविरति में आने के लिए प्रयत्न करता है, क्योंकि अल्पविरति में उसे परम आनंद की अनुभूति होती है तो वह विचार करता है कि अल्पविरति से इतनी आत्मिक शान्ति प्राप्त हुई तो सर्वविरति के प्राप्त होने पर कितना आनंद होगा ? अतः इस विचार से प्रेरित होकर वह प्रबल पुरुषार्थ करता है तो उसे सर्वविरति भी प्राप्त हो जाती है यह सर्वविरति नामक छठवां गुणस्थान है, जिसमें आत्मा को पौद्गलिक भावों पर मूर्छा नहीं रहती है तथा सारा समय स्वरूप की अभिव्यक्ति में लगता है, किन्तु बीच रमें प्रमाद उसकी शांति को भंग करता है उसे वह सहन नहीं कर सकता है तथा प्रमाद का त्याग करके सातवें गुणस्थान अप्रमत्तसंयत को प्राप्त कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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