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________________ ३६२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री लेते हैं। भव्यजीवों में भी किसी समय कोई जीव वीर्योल्लास के अतिरेक से आध्यात्मिक विकास-यात्रा में आगे बढ़ जाता है। उसके यथाप्रवृत्तिकरण को चरम यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। २. अपूर्वकरण - चरमयथाप्रवृत्तिकरण में आए हुए जीव का सद्गुरु का योग मिलने पर उदय होता है, विवेक-बुद्धि और संयमभावना का प्रस्फुटन होता है। धर्मश्रवण से उसका मन विशिष्ट वैराग्य वाला होता है। आत्मा को अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए कभी भी नहीं आया- ऐसा अपूर्व वैराग्ययुक्त अध्यवसाय उत्पन्न होता है, इसे ही शास्त्रों में अपूर्वकरण कहा गया है। विकासगामी आत्मा को यहाँ प्रथम बार शान्ति का अनुभव होता है। अपूर्वकरण का कार्य ग्रन्थिभेद है। ___ अपूर्वकरण की अवस्था में जीव कर्मशत्रुओं पर विजय पाते हुए निम्नलिखित चार प्रक्रियाएं करता है। १. स्थितिघात - पूर्व में यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा जो सातों कों की स्थिति अंतः कोटाकोटी सागरोपम की हुई है, उसमें से भी अपूर्वकरण द्वारा कों की स्थिति और कम हो जाती है। २. रसघात - कर्मविपाक की प्रगाढ़ता में कमी होती हैं, अर्थात् कर्मों में फल देने की शक्ति या रस हीन हो जाता है। ३. गुणश्रेणी - कर्मों को ऐसे क्रम में रख देना, ताकि विपाककाल के पूर्व ही उनका फलभोग किया जा सके। ४. अपूर्वबन्ध - क्रियमाण क्रियाओ के परिणामस्वरूप होने वाले बन्ध का अत्यन्त अल्पकालिक एवं अल्पतर मात्रा में होना। ५. अनावृत्तिकरण - निवृत्ति, अर्थात् पीछे हटना (वापस लौट जाना); अनिवृत्ति, अर्थात् जहाँ से सम्यक्त्व प्राप्त किए बिना वापस नहीं लौटे- ऐसा आत्मा का अनिर्वचनीय, लोकोत्तर निर्मल अध्यवसाय अनिवृत्तिकरण कहलाता है। इस करण के समय जीव का वीर्योल्लास पूर्व की अपेक्षा बढ़ जाता है, जो कर्मक्षय के लिए वज्र के समान माना जा सकता है। तीनो करण में प्रत्येक की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। अनिवृत्तिकरण में भी उपर्युक्त स्थितिघातादि चालू ही हैं, लेकिन अभी गुणस्थानक पहला ही है। "जब अनिवृत्तिकरण का एक भाग शेष रहता है, तब अन्तःकरण की क्रिया शुरू होती है। इस प्रक्रिया में मिथ्यात्वमोहनीय के कर्मदलिकों को आगे-पीछे कर दिया जाता है। कुछ कर्मदलिकों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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