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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३६१
आध्यात्मिक-विकास की प्रक्रिया और ग्रंथिभेद
आत्मा का शुद्धस्वरूप मोह से आवृत्त है और इसे दूर करने के लिए साधक को तीन मानसिक ग्रन्थियों का भेदन करना होता है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि यह आत्मा जिस प्रासाद में रहती है, उस पर मोह का आधिपत्य है। मोह ने आत्मा को बन्दी बना रखा है। प्रासाद के तीन द्वारों पर उसने अपने प्रहरी लगा रखे हैं। प्रथम द्वार पर निःशस्त्र प्रहरी हैं। दूसरे द्वार पर सशस्त्र, सबल और दुर्जेय प्रहरी हैं और तीसरे द्वार पर पुनः निःशस्त्रप्रहरी हैं। वहां जाकर आत्म-देव के दर्शन के लिए व्यक्ति को तीनों द्वारों से प्रहरियों पर विजय प्राप्त करके गुजरना होता है। यह आत्मदेव का दर्शन ही आत्मसाक्षात्कार है और यह तीन द्वार ही तीन ग्रन्थियाँ हैं और इन पर विजयलाभ करने की प्रक्रिया ग्रन्थिभेद कहलाती है, जिसके क्रमशः तीन स्तर हैं- १. यथाप्रवृत्तिकरण २. अपूर्वकरण ३. अनिवृत्तिकरण १. यथाप्रवृत्तिकरण - संसार समुद्र में अनादिकाल से भटकते-भटकते जीव के तथा भव्यता के परिपक्व होने से नदी घोल के न्याय से उसके आत्मपरिणाम कुछ शुद्ध बनते हैं, उसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि पर्वत के पास बहती नदी में पर्वत से गिरे हुए छोटे-छोटे पत्थर इच्छा बिना पानी के प्रवाह से परस्पर टकराकर या घिसकर गोल और चिकने हो जाते हैं, उसी प्रकार यथाप्रवृत्तिकरण में अज्ञानपूर्वक दुःखसंवेदना जनित अल्प आत्मशुद्धि हो जाती है और वह ग्रंथिदेश को प्राप्त कर लेता है। यथाप्रवृत्तिकरण पुरुषार्थ और साधना का परिणाम नहीं होता है, वरन् एक संयोग है, एक प्राकृतिक उपलब्धि है। यह एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इसमें आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष सातों कमों की बाँधी हुई दीर्घ स्थिति (मोहनीयकर्म ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम) घटकर मात्र अंत कोड़ाकोड़ी सागरोपम परिणाम हो जाती है। यथाप्रवृत्तिकरण- यह कार्य है और स्थिति कम होना इसका कारण है।
यह आवश्यक नहीं है कि यथाप्रवृत्तिकरण करने वाला प्रत्येक जीव आध्यात्मिक विकास यात्रा में आगे बढ़ हो जाए, क्योंकि यथा प्रवृत्तिकरण भव्य और अभव्य-दोनों प्रकार के जीव अनेक बार करते हैं, किन्तु अभव्य जीव यहाँ से आगे नहीं बढ़ सकते हैं, यहीं पर रह जाते हैं और पुनः दीर्घस्थिति का बंध कर
७. गुणस्थानसिद्धान्त : एक विश्लेषण पृ. ४६-डॉ. सागरमल जैन
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