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३६०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
आगे कदम बढ़ाने वाले, अर्थात् उपशमश्रेणी चढ़ने वाले तथा श्रुतकेवली भी दुष्टकर्मवश अनन्त संसार में भटक जाते हैं।"१६ अतः हम कह सकते हैं कि कर्मरूप शत्रुओं से संघर्ष करते समय कुछ आत्माएँ संघर्ष से विमुख हो जाती हैं, तो कुछ संघर्ष के मैदान में डटी रहती हैं और कुछ विजय प्राप्त करके स्वस्वरूप में स्थित हो जाती हैं। विशेषावश्यक भाष्य ७५० में इन तीनों अवस्थाओं का सोदाहरण विवेचन इस प्रकार है
कोई तीन प्रवासी का अपने गंतव्य स्थान की ओर बढ़ रहे थे। जंगल का बहुत मार्ग उन्होंने पार कर लिया। इतने में वे एक भयानक स्थान पर पहुँचें। वहाँ उनको दो चोर मिले। उन दो चोरों को देखकर एक प्रवासी मार्ग से पीछे हट गया। दूसरे को चोर ने पकड़ लिया और तीसरा चोरों पर विजय प्राप्त करके अपने लक्ष्य पर पहुँच गया। यहाँ जंगल या अटवी- यह संसार है और विकासोन्मुख आत्मा को प्रवासी की उपमा दी है। कर्मों की स्थिति- यह दीर्घपथ है। मोहग्रंथि या कर्मग्रन्थी भयस्थान है। राग और द्वेष रूपी दो चोर हैं। जो आत्मा इन चोरों पर विजय प्राप्त करती है, वही आध्यात्मिक-विकास करते हुए अपने गन्तव्यस्थान पर पहुँच जाती है। यहाँ हमें तीन प्रकार के व्यक्तियों का चित्रण मिलता है। एक तो वे, जो आध्यात्मिक-लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना के युद्धस्थल पर आते तो हैं, किन्तु साहस के अभाव में शत्रु की चुनौती का सामना नहीं कर युद्धस्थल से भाग जाते हैं, अर्थात् वापस संसारोन्मुख हो जाते हैं। दूसरे वे, जो साहस करके शत्रु का सामना तो करते हैं, किन्तु युद्धकौशल के अभाव में हार जाते हैं। तीसरे वे, जो शत्रु पर विजय प्राप्त करके ग्रंथिभेद कर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ जाते हैं। ग्रन्थिभेद का तात्पर्य आध्यात्मिक-विकास में बाधक प्रगाढ़ अनादिकालीन राग एवं द्वेष की ग्रन्थियो का छेदन करना है। आध्यात्मिक-विकास में आगे बढ़ने के लिए अर्थात् क्रमशः उपर के गुणस्थान प्राप्त करने के लिए ग्रंथिभेद की क्रिया बहुत महत्त्वपूर्ण है। अब हम इसी विषय पर विचार करेंगे।
७४६. आरुढ़ाः प्रशमश्रेणिं, श्रुतकेवलिनोऽपि च।
भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा।।५।ज्ञानसार २१/५ ७५०. विशेषावश्यक भाष्य गाथा (१२११-१२-१३-१४)
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