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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३८६
गुणस्थानवर्ती) ५. दर्शनमोह का क्षय करने वाला (क्षायिकसम्यग्दृष्टि ४, ५, ६, ७ गुणस्थानवर्ती) ६. दर्शन का उपशमन करने वाला (उपशमश्रेणी चढ़ने चाले ७, ८, ६, १० गुणस्थानवर्ती) ७. उपशांतमोह नामक ११ वें गुणस्थानवर्ती ८. क्षपकश्रेणी चढ़ने वाला (७, ८, ६, १० गुणस्थानवर्ती) ६. क्षीणमोह (बारहवें गुणस्थानवर्ती) १०. जिन (१३-१४ गुणस्थानवर्ती)।
इन दस स्थानों में क्रमशः असंख्यातगुनी कर्म निर्जरा होती है। इस निर्जरा के परिणाम से ही वह गुणस्थानों की अग्रिम श्रेणियों में बढ़ता जाता है। गोम्मटसार में आध्यात्मिक-विकास की ग्यारह गुण श्रेणियों के साथ-साथ चौदह गुणस्थानों की भी चर्चा है। आ. हरिभद्रसूरि ने भी अपुनर्बन्धक मिथ्यादृष्टि अवस्था को आध्यात्मिक-विकास का प्रथम चरण माना है।।
उ. यशोविजयजी ने भी आठदृष्टि की सज्झाय में सम्यक्त्व के पूर्व की मित्रा, तारा, बला और दीपा इन चार दृष्टियों में भी आध्यात्मिक-विकास को स्वीकार किया है। वस्तुतः सम्यक्त्व के सम्मुख होने वाले जीव का भी कुछ अंश में तो आध्यात्मिक-विकास अवश्य माना जा सकता है।
आध्यात्मिक-विकास की प्रक्रिया में आत्मा के दो प्रमुख कार्य होते हैं- १. सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना, अर्थात् आत्म और अनात्म का या हेय और उपादेय आदि का यथार्थ विवेक प्राप्त करना और २. स्वस्वरूप में स्थित रहना, अर्थात् सम्यक्चारित्र प्राप्त करना।
दर्शनमोहनीयकर्म के नष्ट होने से सम्यग्ज्ञानदर्शन का प्रकटन होता है चारित्रमोहनीयकर्म पर विजय पाने से यथार्थचारित्र (नैतिकता) का उदय होकर स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है। दर्शनमोह और चारित्रमोह-दोनों में दर्शनमोह ही प्रबल है, इसलिए आध्यात्मिक-विकासयात्रा में प्रथमतः दर्शनमोह पर विजय पाना होता है।
जैनदर्शन यह मानता है कि आत्मा की पूर्णता को प्रकट करने के लिए उसे दर्शनमोह और चारित्रमोह से संघर्ष करना होता है। इसी संघर्ष से आत्मा की विजययात्रा प्रारम्भ होती है। डॉ. सागरमल जैन ४८ लिखते हैं- "इस संघर्ष में सदैव विजय हो- यह आवश्यक नहीं है, आत्मा कभी परास्त होकर पुनः पतनोन्मुख हो जाती है।" उ. यशोविजयजी कहते हैं- “आध्यात्मिक-विकास में
७४८. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण, पृ. ४५ -डॉ. सागरमल जैन
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