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________________ ३८८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री इसका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल देशोनपूर्व करोड़पूर्व होता है। १४. अयोगीकेवली गुणस्थान - जो केवली सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्म मनयोग तथा सूक्ष्म वचन योग का निरोध कर देते हैं और अन्त में सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान के बल से सूक्ष्मकाययोग का भी निरोध कर देते हैं और शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, वे अयोगी अवस्था को प्राप्त अयोगी केवली कहलाते हैं। समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति शुक्लध्यान द्वारा निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके शरीर का त्याग करके वह सर्व संगरहित मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस गुणस्थानक का काल पाँच हृस्वस्वर (अ, इ, उ, ऋ, ल) के उच्चारण के काल जितना हैं, अर्थात् मध्यम अन्तर्मुहूर्त्तकाल जितना होता है। यही आध्यात्मिक-विकास की पूर्णता है, चरम आदर्श की उपलब्धि है उसके बाद की अवस्था को जैन विचारकों ने मोक्ष, निर्वाण, शिवपद कहा है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में योगनिरोध की इस अवस्था को योगसंन्यास भी कहा है तथा अन्य दर्शनों में वर्णित निर्गुण ब्रह्म से इसकी समानता बताई है।४६ चौदह गुणस्थानों का स्वरूप वर्णित करने के बाद अब हम चौदह गुणस्थानों के आधार पर आध्यात्मिक-विकास का क्रम दर्शाएंगे। गुणस्थानों के आधार पर आध्यात्मिक-विकास का क्रम गुणस्थान आध्यात्मिक-विकास का ही एक रूप है। जैसे-जैसे कर्मों के आवरण क्षीण होते हैं। अध्यात्मदशा का विकास होता है। विकास कों के क्षय, उपशम या क्षयोपशम पर आधारित है। कर्मों के क्षय, उपशम जैसे जैसे होते जाते हैं, वैसे-वैसे आत्मा गुणस्थानरूपी श्रेणी के अग्रिम अग्रिम सोपानों पर आरूढ़ होती है। तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिकदशा के दस विकास स्थान कहे गए हैं- १. सम्यग्दृष्टि (यहीं से मोक्षमार्ग शुरु होता है) २. श्रावक (देशविरति) ३. विरतिवंत (साधु) ४. अनंतानुबंधी कषायों का विसंयोजन करने वाला (४, ५, ६, ७ ७४६ ___७७ ७४७ योगसन्यासतस्त्यागी योगानप्यखिलांस्त्यजेत् । इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म परोक्तमुपपद्यते।।७। ज्ञानसार, त्यागाष्टक (क) सम्यग्दृष्टि श्रावक विश्ताऽनन्तवियोजक-दर्शनमोह (ख) तत्वार्थसार अधिकार ७, गाथा ५५, ५६, ५७-अमृतचंद्राचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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