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३७८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
८. निवृत्तिकरण (अपूर्वकरण) ६. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसंपराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोगीकेवली १४. अयोगीकेवली।
१. मिथ्यादृष्टिगुणस्थानक - यह जीव की अधस्तम अवस्था है। इस अवस्था में आत्मा यथार्थज्ञान और सत्यानभूति से वंचित रहती है। इस गणस्थान में दर्शनमोह और चारित्रमोह- दोनों की प्रबलता होती है, जिससे वह आत्मा आध्यात्मिक-दृष्टि से दरिद्र होती है। यथार्थबोध के अभाव के कारण परपदार्थों से सुख की कामना रहती है। उसे आध्यात्मिक-सुख का रसास्वादन नहीं हो पाता है। वह दिग्भ्रमित व्यक्ति की तरह लक्ष्यविमुख होकर भटकता रहता है, जैसे कोई दिग्भ्रमित पुरुष उत्तर को दक्षिण मानकर उस दिशा में चलता है, किन्तु चलने पर भी वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है। हम इसे अन्य उदाहरण से भी समझा सकते हैं, जैसे-मदिरा पीए हुए किसी व्यक्ति को हित-अहित, योग्य-अयोग्य, उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रहता है, उसी प्रकार मोह की मदिरा से उन्मत्त बने व्यक्ति को आत्मा के हित-अहित कर्तव्य-अकर्तव्य आदि का विवेक नहीं होता है।०१८
इस गुणस्थान पर रही हुई सभी आत्माओं का स्तर एक समान नहीं होता है। उनमें भी तारतम्य है। पण्डित सुखलालजी के शब्दों में-प्रथम गुणस्थान पर रहने वाली ऐसी अनेक आत्माएँ होती हैं, जो राग-द्वेष के तीव्र वेग को दबाए हुए होती हैं। उनकी अनंतानुबंधी कषाय दमित होती हैं। वे यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वदा अनुकूलगामी तो नहीं होती है, तो भी उनका बोध व चारित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छा होता है, इसे मार्गाभिमुख अवस्था भी कहते है। उ. यशोविजयजी ने आठदृष्टि की सज्झाय में मार्गाभिमुख अवस्था के चार विभाग किए हैं, जिन्हें क्रमशः मित्रा, तारा, बला और दीप्रा कहा गया है। इनमें क्रमशः मिथ्यात्व की अल्पता होने पर जीव उस गुणस्थानक के अन्तिम चरण
(अ) मिच्छे सासणमीसे, अविरयदेसे पमत्त अपमत्ते।
नियट्टिअनियट्टि, सुहुमुबसमखीणसजोगिअजोगिगुणा ।।२ 1-द्वितीय कर्मग्रन्थ-देवेन्द्रसूरी (ब) मूलाचार, पर्याप्त्याधिकार, गाथा-११६७-११६८ मद्यमोहायधा जीवो न जानाति हिताहितम्। धर्माधर्मो न जानाति तथा मिथ्यात्वमोहितम् ।।८।। गुणस्थानकृमारोह आठ दृष्टि की सज्झाय - उ. यशोविजयजी
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