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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३७७ चौदह गुणस्थानकों की अवधारणा और उनका स्वरूप जैन-दर्शन का मन्तव्य है कि आत्मा का स्वरूप निश्चयदृष्टि से शुद्ध, ज्ञानमय और परिपूर्ण सुखमय है। आत्मा अनंत चतुष्टय से युक्त है, किन्तु कर्मों के कारण उसका स्वरूप विकृत एवं आवृत्त है। जिस प्रकार बादल के आवरण से सूर्य का तेज कम हो जाता है, किन्तु नष्ट नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मों की घनघोर घटाओं से आत्म ज्योति मन्द-मन्दतम हो जाती है, किन्तु जैसे-जैसे कर्मों का आवरण हटता है, वैसे-वैसे आत्मा की शक्ति प्रकट होने लगती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय- ये आत्मशक्ति को आच्छादित करने वाले आवरण हैं। इन चार प्रकार के आवरणों में भी मोहनीय का आवरण प्रधान है, इसलिए मोहनीयकर्म को राजा की उपमा दी है। मोह की तीव्रता और मन्दता पर अन्य आवरणों की तीव्रता और मन्दता अवलम्बित है। एतदर्थ ही गुणस्थानों की व्यवस्थाओं में मोह की तीव्रता और मन्दता पर अधिक दृष्टि रखी गई है। इसी आधार पर आध्यात्मिक-विकास क्रम की चौदह अवस्थाओं का वर्णन किया गया है दिगम्बर आचार्य नेमिचन्द के अनुसार- "प्रथम चार गुणस्थान दर्शनमोह के उदय आदि से होते हैं और आगे के आठ गुणस्थान चारित्रमोह के क्षयोपक्षम आदि से निष्पन्न होते हैं।"७१५ समवायांग में जीवस्थानों की रचना का आधार कर्मविशुद्धि बताया गया है।७१६ हम यहाँ चौदह गुणस्थानकों के नाम तथा उनका संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत करेंगे। चौदह गुणस्थानों के नाम इस प्रकार हैं -१. मिथ्यादृष्टि २. सास्वादन ३. मिश्रदृष्टि ४. अविरतसम्यग्दृष्टि ५. देशविरति ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ७५. एदे भावा णियमा दंसणमोहं पडुइच्च भणिदा हु। चास्तिं णत्थि जदो अविरद अन्तेसु ठाणेसु।।१२।। देसविरदे पमत्ते, इदरे य खओ बसमियमानो दु। सो खलु चस्तिमोहं पडुच्च भणियं तहा उबरिं ।।१३। गोम्मटसार कम्मवियोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवठाणा पन्नत्ता। -समवायांग १४/१ १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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