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________________ ३७६/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री में उपलब्ध है। परवर्तीकाल में उसे गुणस्थान-सिद्धान्त के रूप में सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न ही किया गया है। आगमों में सम्यग्दर्शन की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि - ऐसे तीन प्रकार के जीवों का उल्लेख मिलता है। चरित्र की अपेक्षा से अविरत, देशविरत और सर्वविरत ऐसे तीन विभाग मिलते हैं, जो चारित्र या सदाचरण के क्षेत्र में व्यक्ति के विकास की तीन अवस्थाओं को सूचित करते हैं। इसी प्रकार आध्यात्मिक सजगता की अपेक्षा से भी आगम में तीन प्रकार के जीवों का उल्लेख मिलता है- प्रमत्त, प्रमत्ताप्रमत्त और अप्रमत्त। इसी क्रम में आध्यात्मिक विकास की ओर आगे बढ़ने के दो मार्ग- उपशमश्रेणी और क्षायिकश्रेणी का भी उल्लेख हुआ । अतः हम देखते हैं कि व्यक्ति के आध्यात्मिक-विकास की दृष्टि से आगमकाल में भी पर्याप्त चिंतन हुआ । जहाँ तक गुणस्थान- - सिद्धान्त का प्रश्न है, यह व्यक्ति के आध्यात्मिक - विकास को दो आधारों पर विवेचित करता है। प्रथम, दर्शनमोह के उपशम क्षयोपशम या क्षय के आधार पर और दूसरा, चारित्रमोह के उपशम, क्षयोपशम और क्षय के आधार पर । वस्तुतः जैनदर्शन यह मानता है कि जब तक दृष्टिकोण की विशुद्धि नहीं होती, तब तक आचरण की विशुद्धि नहीं होती है। दृष्टिकोण की विशुद्धि के लिए दर्शनमोह का उपशम, क्षयोपशम, या क्षय होना आवश्यक है, किन्तु दर्शनमोह के उपशम, क्षयोपशम या क्षय से भी बात पूर्ण नहीं होती, दृष्टिकोण की विशुद्धि के साथ-साथ चारित्र की विशुद्धि भी आवश्यक है। यद्यपि दृष्टिकोण की विशुद्धि के लिए भी यह आवश्यक माना गया है कि तीव्रतम कषायों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय होने पर ही दृष्टिकोण विशुद्ध होता है। उसके बाद क्रमशः अप्रत्याख्यानी कषायचतुष्क, प्रत्याख्यानीचतुष्क, संज्चलनकषायचतुष्क और नौ नोकषायों के क्रमिक रूप से उपशमित या क्षय होने पर आध्यात्मिक विकास की यात्रा आगे बढ़ती है। यह विकासयात्रा भी दो रूपों में होती है । कषाय और वासनाओं के प्रकटीकरण को रोककर, अर्थात् उन्हें उपशमित करके या फिर निरसन करके व्यक्ति आध्यात्मिक क्षेत्र के विकास में आगे बढ़ सकता है। जैनदर्शन की यह मान्यता है कि जो वासनाओं का दमन करके आगे बढ़ता है, वह आध्यात्मिक विकास की एक ऊँचाई तक पहुँचकर भी वापस पतित हो जाता है, अतः कषायों और आवेगों का निरसन करते हुए ही आगे बढ़ना, जैनदर्शन में आध्यात्मिक विकास का सम्यक् मार्ग माना गया है और ऐसा साधक ही अन्त में परमात्मपद और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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