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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३७५ ऋषिभाषित, दशवैकालिक, भगवती आदि में इसका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। श्वेताम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम समावायांग में जीवस्थान के नाम से इसका उल्लेख हुआ है। उसके पश्चात श्वेताम्बर-परम्परा में गुणस्थानों के १४ नामों का निर्देश आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध है, किन्तु वहाँ नामों का निर्देश होते हुए भी उन्हें गुणस्थान नहीं कहा गया है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि मूल आवश्यकसूत्र, जिसकी नियुक्ति में ये गाथाएँ आई हैं- मात्र चौदह भूतग्राम हैं, इतना ही बताता है, बाद में १४ गुणस्थानों का विवरण दिया गया है, किन्तु डॉ. सागरमल जैन की मान्यता है कि ये गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि आचार्य हरिभद्र (८ वीं शती) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में 'अधुनामुमैव गुणस्थान द्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार' कहकर इन दोनों गाथाओं को सग्रहणीसूत्र से माना है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन आगमों और नियुक्तियों के रचनाकाल में गुणस्थान की अवधारणा नहीं थी।
श्वेताम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम आवश्यकचूर्णि में हमें चौदह अवस्थाओं के लिए गुणस्थान संज्ञा का प्रयोग मिलता है। दिगम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम गुणस्थान शब्द का प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' तथा षटूखण्डागम में मिलता है तथा प्राकृत पंचसंग्रह, मूलाधार, भगवती आराधना, कर्मग्रन्थ, गोम्मटसार, तत्त्वार्थसूत्र की देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धटीका, भट्ट अकलंक के राजवार्तिक विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक, आदि ग्रन्थों में दिगम्बर आचार्यों ने अपनी टीकाओं में गुणस्थान पर विस्तृत विवेचन किया है। श्वेताम्बर-परम्परा में आवश्यकचूर्णि के अलावा तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेन की वृत्ति, हरिभद्र की तत्त्वार्थसूत्र की टीका आदि में भी इस सिद्धान्त का गुणस्थान के नाम से विस्तृत उल्लेख पाया जाता है।
इस आधार पर कुछ जैन विद्वानों की यह मान्यता है कि जैनदर्शन में गुणस्थान सिद्धान्त का विकास परवर्तीकाल में हुआ, किन्तु यदि हम गुणस्थान-सिद्धान्त सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं को देखते हैं, तो हमें स्पष्ट लगता है कि आध्यात्मिक-विकास की विभिन्न अवस्थाओं का उल्लेख आगमसाहित्य
७४. मिच्छादिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छादिट्ठी य।
अविरससम्मदिट्ठी विरयाविरए पमत्ते य।। तत्ते य अप्पभत्ता नियट्टिअनियट्टिबायरे सुहमे। उवसंतखीणमोहे होइ सजोगी अजोगी य।। -नियुक्तिसंग्रह (आवश्यक नियुक्ति) पृ. १४६ - उद्धत-वही
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