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________________ ३७४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री में परमात्मा के विभिन्न नामों की चर्चा की है, जिससे परमात्मा का स्वरूप स्पष्ट होता है। उन्होंने परमात्मा को शिव चिदाऽऽनंद (ज्ञानानंदमय ) भगवान (शांति करने वाले) जिन ( राग-द्वेष जीतने वाले) अरिहा (पूजायोग्य), अरुहा ( फिर से उत्पन्न नहीं होने वाले) तीर्थंकर ( धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले ) ज्योतिरूप, आकाश के समान व्यापक, अगोचर, निर्मल, निरंजन, जगवत्सल, सभी प्राणियों के आश्रयस्थल, अभयदान के दाता, वीतराग, निर्विकल्प, रति- अरति-भय-शोक आदि से रहित, निद्रा, तन्द्रा और दुर्दशा से रहित, परमपुरुष, परमात्मा, परमेश्वर, परमेष्ठी, परमदेव, विश्वम्भर, ऋषिकेश, जगन्नाथ, अघहर, अधमोचन, आदि नामों से अभिहित किया। ७१२ उपर्युक्त सभी नाम परमात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। (५) गुणस्थान की अवधारणा और आध्यात्मिक विकास प्रत्येक प्राणी में आध्यात्मिक - विकास की समान स्थिति नहीं रहती है। जिस आत्मा में विषय-कषाय की, मोह की प्रबलता रहती है, उसके आत्मगुण आच्छादित रहते हैं और तदनुसार उसका आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध रहता है। जैसे - जैसे मोह की सघनता कम होती जाती है, वैसे-वैसे आध्यात्मिक - प्रगति होती जाती है। प्राणियों के भावों के आधार पर आध्यात्मिक - विशुद्धि के अनेक स्तर हो सकते हैं। उन स्तरों के निर्धारण के लिए जैनदर्शन में गुणस्थानों की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया है। यह एक प्रकार का थर्मामीटर है, जिससे आत्मा के विकास की स्थिति व मोह की तरतमता को मापा जा सकता है। यहाँ हम सर्वप्रथम गुणस्थान की अवधारणा का विकास किस रूप में माना जाता है - इसकी चर्चा करेगें। ७१३ यद्यपि गुणस्थान की अवधारणा जैनधर्म की एक प्रमुख अवधारणा है, तथापि प्राचीन स्तर के जैनागमों, यथा - आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ७१२ ७१३ श्री आनन्दघन चौबीसी- सुपार्श्वनाथस्तवनं ७, गाथा ३-७ कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाण पण्णत्ता, तं जहा मिच्छादिट्ठी, सासायणसम्मादिट्ठी, सम्मामिछादिट्ठी, अविरय सम्मादिट्ठी, विरयसविरए, पमत्तसंगए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबामरे अनि अट्टिबायरे, सुहुमसंपराए, उवसामए, वा खवएवा उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगी केवली, अयोगी केवली । - समवायांग (सम्पादक - मधुकरमुनि) १४/१५ उद्घृत - गुणस्थानसिद्धान्त : एक विश्लेषण- डॉ. सागरमल जैन - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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