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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३७३ योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश में कर्मरहित अवस्था को परमात्मा कहा है। उनका कथन है- “जिसने ज्ञानावरणादि कर्मों को नाश करके और सब देहादिक परद्रव्यों को छोड़कर केवलज्ञानमयी आत्मस्वरूप को पाया है, वह परमात्मा है।"७० मुक्ति को प्राप्त हुए सिद्धों के स्वरूप का विवेचन करते हुए उन्होंने कहा है कि “नित्य, निरंजन, केवलज्ञान से परिपूर्ण परमानंद स्वभाव शांत और शिवस्वरूपी परमात्मा है।"७०८ योगीन्दुदेव७०६ ने परमात्मा के निरंजन स्वभाव की विस्तार से व्याख्या की है। शुभचन्द्र ने ज्ञानावर्ण में रूपातीत ध्यान के अन्तर्गत सिद्ध परमात्मा के स्वरूप की चर्चा करते हुए कहा है- “सर्वव्यापक, ज्ञाताद्रष्टा, अमूर्त्तिक (आकार से रहित) निष्पन्न, राग-द्वेष से रहित, जन्मान्तर-संक्रमण से मुक्त, अन्तिम शरीर के प्रमाण से कुछ हीन, अविरल आत्म प्रदेशों से स्थित, लोक के शिखर पर विराजित, आनन्दस्वरूप से परिणत, रोग से रहित और पुरुषाकार होकर भी अमूर्तिक सिद्ध परमात्मा होते हैं।"७१० ___ डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है- कर्ममल से रहित, राग-द्वेष का विजेता, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी आत्मा को परमात्मा कहा गया है। परमात्मा के दो भेद किए गए हैं-अर्हत् और सिद्ध। जीवनमुक्त आत्मा को अर्हत् कहा जाता है और विदेहमुक्त आत्मा को सिद्ध कहा जाता है। __मोक्षप्राभृत, रयणसार, योगसार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि सभी में तीनों प्रकार की आत्माओं के यही लक्षण किए गए हैं। आनंदघनजी ने भगवान् सुमतिनाथ के स्तवन में त्रिविधआत्मा की चर्चा की है तथा सुपार्श्वनाथ के स्तवन ७०७. Og अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्के जेण। मेल्लिघि सयलु वि दबु परु सो परु मुणहि मणेण ।।१५।। परमात्मप्रकाश -योगीन्दुदेव णिच्चु णिरंजणु णणमउ परमाणंद सहाउ जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ।।१७ ।। परमात्मप्रकाश -योगीन्दुदेव परमात्मप्रकाश गाथा-१६-२१ व्योमाकारमनाकारं निष्पन्नं शान्तमच्युतम् । चरमागत् कियन्न्यूनं स्वप्रदेशैर्धनैः स्थितम् ।।२२।। लोकाग्रशिखरासीनं शिवीभूतमनामयम् । पुरुषाकारमापन्नमप्यमूर्त च चिन्तयेत् ।।२३।। ज्ञानार्णव ३७ (रूपातीतम्)- शुभचन्द्र जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. ४४८ -डॉ. सागरमल जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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