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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३७६ में ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया करता है और उनमें सफल होने पर विकास के अगले चरण सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है।
मिथ्यात्व के भेद - स्थानांगसूत्र७२० में मिथ्यात्व के निम्न दस भेद बताए गए हैं- १. अधर्म में धर्मबुद्धि २. धर्म में अधर्मबुद्धि ३. उन्मार्ग में मार्गबुद्धि ४. मार्ग में उन्मार्गबुद्धि ५. अजीव में जीवबुद्धि ६. जीव में अजीवबुद्धि ७. असाधु में साधु की बुद्धि ८. साधु में असाधु की बुद्धि ६. अमूर्त में मूर्त की बुद्धि और १०. मूर्त में अमूर्त की बुद्धिा तत्त्वार्थभाष्य' में अभिगृहीत और अनभिगृहीत ये दो भेद मिथ्यात्व के बताए हैं। आवश्यकचूर्णि ७२२ और प्राकृत पंचसंग्रह ७२३ में सांशयिक, आभिग्रहिक और अनाभिग्रहिक ये तीन भेद बताए गए हैं। गुणस्थान क्रमारोह २४ की वृत्ति में एवं कर्मग्रन्थ २५ में पाँच प्रकार के मिथ्यात्व बताए हैं१. आभिग्रहिक २. अनाभिग्रहिक ३. सांशयिक ४. आभिनिवेशिक और ५. अनाभोगिक। गुणस्थानक्रमारोह २६ में काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व के तीन भेद बताए गए हैं- १. अनादि अनन्त २. अनादिसान्त ३. सादिसांत उपर्युक्त पाँच प्रकार के मिथ्यात्व का परिचय लोकप्रकाश में दिया गया है। संक्षेप में सारांश इस प्रकार है१. अभिग्रहिक - मेरी मान्यता ही सत्य हैं, अर्थात जो मैंने
माना है, वही सत्य है। २. अनाभिग्रहिक - सभी धर्म समान हैं, सभी सत्य है।
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दशविधे मिच्छत्ते, धम्मे अधम्मसण्णा, उमग्गे मग्गसण्णा, मग्गे उम्मग्गसण्णा, अजीवेसु जीवसण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, आहुसु साहुसण्णा, साहुसु आसाहुसण्णा, अमुत्तेसु मुत्तसण्णा, मुत्तेसु अमुत्तसण्णा - (क) स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७४ (ख) गुणस्थान क्रमारोहवृत्ति, पृष्ठ-४ तत्त्वार्थभाष्य ८/१ आवश्यकचूर्णि ६/१६५८ प्राकृतपंचसंग्रह १/७ गुणस्थान क्रमारोह की स्वोपज्ञवृत्ति गाथा-६ अभिगहिअमणभिगहिआ, भिनिवेसियंससइयमणाभोगं पणमिच्छबार अविरइ, मणकरणानिअनुछजिअवहो।।५१ कर्मग्रन्थ -भाग-४, देवेन्द्रसूरी अभव्याश्रिता मिथ्यात्वे, अनाद्यन्ता स्थितिर्भवेत्।। सा भव्याश्रिता मिथ्यात्वे, अनादिसान्ता पुनर्मता ।। गुणस्थान क्रमारोह-६
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