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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३७१ सदा-सर्वदा के लिए मुक्तावस्था, अर्थात् सत्-चित् और आनन्दमय शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि कर ली है, वे सिद्ध कहे जाते हैं।"७००
आचारांग७०१ में सिद्धावस्था को प्राप्त शुद्धात्मा का स्वरूप बताने में असमर्थता व्यक्त की गई है, क्योंकि तर्क वहाँ पहुँचता नहीं है और बुद्धि की वहाँ गति नहीं है। शुद्धात्मा कर्ममलरहित ओज (ज्योति) स्वरूप है। समग्र लोक का ज्ञाता है। वह न लम्बा है, न छोटा है, न गोल है, न तिकोना है, न चौकोर है, न परिमंडल है, उसकी अपनी कोई आकृति नहीं है। न काला है, न नीला है, न लाल है , न पीला है, न शुक्ल है, उसका कोई रूप नहीं है। न सुगंध वाला है न दुर्गध वाला है, उसमें कोई गंध नहीं है। न तीखा है, न कडुआ है, न कसैला है, न खट्टा है, न मीठा है, उसका कोई रस नहीं है। न कर्कश है, न मुलायम है, न भारी है, न हल्का है, न ठंडा है, न गरम है, न स्निग्ध है, न रूक्ष है, न शरीर रूप है, न जन्म-मरण करने वाला है, न संगवान है। न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक हैं, अर्थात् अवेदी है। वह समस्त पदार्थों को विशेष और सामान्य रूप से जानता है। शुद्धात्मा को समझाने के लिए कोई उपमा नहीं है। वह अरुपी सत्ता है। वह अवस्थारहित है। वह शब्द, रूप, गंध, रस स्पर्श नहीं है। इन शब्दों द्वारा वाच्य भौतिक पदार्थ (पुद्गल) होते हैं, मगर आत्मा इनमें से कुछ भी नहीं है, अतः वह अवक्तव्य है।
इस प्रकार आचारांगसूत्र का यह विवरण परवर्ती जैनदर्शन के विवरण की अपेक्षा आत्मा के औपनिषदिक विवरण के अधिक निकट है।
उत्तराध्ययन के ३१वें अध्ययन में सिद्ध परमात्मा के ३१ गुण बताए गए हैं, किन्तु वहाँ उनके नामों का उल्लेख नहीं है। उत्तराध्ययन के टीकाकार भावविजयजी ने सिद्ध परमात्मा के निम्न ३१ गुणों का उल्लेख किया है ०२- ५ संस्थानाभाव, ५ वर्णाभाव, २ गन्धाभाव, ५.रसाभाव, ८ स्पर्शाभाव, ३ वेदाभाव, अकायत्व, असंगत्व और अजन्मत्व। अष्टकर्म के क्षय के आधार पर सिद्ध परमात्मा के निम्न आठ गुण भी माने गए हैं
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जैनदर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा -साध्वी प्रियलताश्री आचारांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कंध -५/६/१७६ उत्तराध्ययन की टीका पत्र-३०२६
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