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________________ ३७०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री २२. तीर्थंकरों का आयुष्य जघन्य बहत्तर वर्ष और 'उत्कृष्ट चौरासी लाख पूर्व का होता है, जबकि सामान्य केवलियों का जघन्य आयुष्य नौ वर्ष और उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व हो सकता है।६८ अरिहंत परमात्मा के दोनों भेदों का अन्तर स्पष्ट करने के बाद एक अन्य अपेक्षा से अरिहन्त परमात्मा के जो दो भेद और बताए गए हैं, उनकी चर्चा हम संक्षेप में कर रहे हैं। अरिहंत परमात्मा के “१. संयोगीकेवली और २. अयोगीकेवली-इस तरह दो भेद होते हैं।"६६६ जिनके मन-वचन और काया के योग (प्रवृत्ति) होते हैं, वे तेरहवें गणस्थानवर्ती संयोगीकेवली कहलाते हैं, किन्तु जब आयुष्यकर्म अत्यल्प रह जाता है तब वे मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों का निरोध करते हैं तथा वे अयोगीकेवली कहलाते है। इस प्रकार अरिहंत के स्वरूप-कथन के पश्चात् अब हम सिद्धों के स्वरूप पर चर्चा करेगें। उसके बाद विभिन्न आचार्यों के परमात्मा के विषय में जो मंतव्य हैं, उन्हें प्रस्तुत करेंगे। सिद्ध का स्वरूप सिद्धावस्था समस्त कर्मों के क्षय का परिणाम है। जिसके अष्टकर्म नष्ट हो गए हैं और जो सभी दोषों से रहित और सर्वगुणसम्पन्न होते हैं तथा जो सिद्धशिला पर विराजित हैं, वे सभी आत्माएँ सिद्ध परमात्मा की कोटि में आती हैं। जैसे बीज के जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, वैसे ही कर्मबीज के जल जाने पर जन्म-मरण की परम्परा समाप्त हो जाती है। “जीव अजीव आदि नौ तत्त्वों में अन्तिम तत्त्व मोक्ष है। मोक्ष तत्त्व जीव का चरम और परम लक्ष्य है। जिस आत्मा ने अपने समस्त कमों को क्षय कर अव्याबाध सुख को प्राप्त कर लिया है और कर्मबन्धन से मुक्ति हो गई है, जिन्होंने केवलज्ञान की सम्पदा उपलब्ध कर ली है, जिनके जन्म-मृत्यु रूप चक्र की गति रुक गई है, जिन्होंने ६६८. तीर्थंकरचरित्र-पृ. ७, मुनि सुमेरमल लाडनूं ६६६. सजोगकेवली। अजोगकेवली षड्खण्डागम -१/१/२१-२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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