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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/३६६
१. गर्भकल्याणक २. जन्मकल्याणक ३. प्रव्रज्याकल्याणक ४. कैवल्यकल्याणक ५. निर्वाणकल्याणका सामान्य केवली के कल्याणक-महोत्सव नहीं होते हैं।
१३. सभी तीर्थंकरों के चौंतीस अतिशय होते हैं, जिनमें से कुछ अतिशय सहज होते हैं, कुछ अतिशय देवकृत होते हैं और कुछ अतिशय कर्मक्षयज होते हैं, जबकि सामान्य केवलियों के अतिशय हों ही, यह आवश्यक नहीं है।
१४. तीर्थंकरों के वाणी के पैंतीस अतिशय होते हैं, जबकि सामान्य केवलियों में इनका होना आवश्यक नहीं हैं।
१५. तीर्थंकर चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं, जबकि सामान्य केवली नहीं करते हैं।
१६. सभी तीर्थंकर अमूक होते हैं, अर्थात् सभी धर्मदेशना देते हैं, जबकि सामान्य केवली मूक और अमूक- दोनों होते हैं।
१७. सभी तीर्थंकरों को संयम ग्रहण करते ही चतुर्थ मनःपर्यवज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, जबकि सामान्य केवलियों के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है।
१८. तीर्थकरों को गर्भ में भी अवधिज्ञान रहता है और वे अवधिज्ञानसहित जन्म लेते हैं। सामान्य केवलियों के लिए इस प्रकार का नियम नहीं है।
१६. सभी तीर्थंकरों की माता उनके गर्भ में आने पर चौदह महास्वप्न देखती हैं, जबकि सामान्य केवलियों के लिए यह नियम नहीं है।
२०. पूर्वजन्म में तीर्थकर दो भव से नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं, जबकि सामान्य केवलियों के लिए यह आवश्यक नहीं है।
२१. तीर्थकरों के शरीर की जघन्य अवगाहना सात हाथ और उत्कृष्ट ५०० धनुष्य होती है, जबकि सामान्य केवलियों की जघन्य अवगाहना दो हाथ और उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ धनुष्य हो सकती है।
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