________________
३६८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
१. तीर्थंकर प्रथम पद में होते हैं, जबकि सामान्य केवली पाँचों पद में होते हैं।
२. तीर्थकर पद नामकर्म के उदय से प्राप्त होता है, जबकि सर्वज्ञ क्षायिकभाव से प्राप्त होता है।
३. तीर्थकर नरक तथा देवगति से आने वाली आत्मा ही बनती है, जबकि सामान्य केवली चारों गतियों में से आने वाले बन सकते हैं।
४. तीर्थकर परमात्मा, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, पंचम एवं एकादश गुणस्थानों का स्पर्श नहीं करते हैं, जबकि सामान्य केवली सिर्फ ग्यारहवें गुणस्थान का ही स्पर्श नहीं करते हैं।
५. तीर्थंकर को वेदनीयकर्म शुभ और अशुभ- दोनों प्रकार का होता है, किन्तु शेष तीन अघातिकर्म (नाम, गोत्र, आयुष्य) एकांतशुभ होते हैं, जबकि सामान्य केवली का सिर्फ आयुष्यकर्म ही एकान्तशुभ होता है, शेष तीनों कर्म शुभ या अशुभ हो सकते हैं।
६. तीर्थकर केवलीसमुद्घात नहीं करते हैं, जबकि सामान्य केवली शेष कर्म आयुष्यकर्म के बराबर न हो, तो 'केवलीसमुद्घात' करते हैं।
७. सभी तीर्थकरों का संस्थान समचतुरस्त्र ही होता है, जबकि सामान्य केवली को छहों में से कोई भी संस्थान हो सकता है।
८. तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं, जबकि सामान्य केवली स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित (गुरु द्वारा बोधित)- दोनों हो सकते हैं।
६. तीर्थंकरों के गणधर होते हैं, जबकि सामान्य केवली के गणधर नहीं होते हैं।
१०. दो तीर्थंकरों का मिलन नहीं होता है, जबकि केवली मिल सकते हैं।
११. तीर्थकरों की संख्या सभी क्षेत्रों में मिलकर एकसाथ जघन्य २० तथा उत्कृष्ट १७० होती है, जबकि सामान्य केवलियों की जघन्य संख्या २ करोड़ और उत्कृष्ट संख्या ६ करोड़ होती है।
१२. तीर्थंकरों के विशेष पुण्य के कारण निम्न पंचकल्याणक महोत्सव मनाए जाते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org