________________
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३६५
स्वयं की प्रशंसा होने पर गर्व धारण नहीं करना और निंदा होने पर क्रोधित नहीं होना, अर्थात् मान-अपमान में समभाव धारण करना। धर्माचार्यों की सेवा करना तथा तत्त्व जिज्ञासा रखना। मन-वचन-काया की पवित्रता, स्थिरता, निर्दभता (मायाचार का अभाव) वैराग्य भाव (संसार पर अनासक्तभाव) रखना। आत्मनिग्रह (इन्द्रियदमन)- उत्तराध्ययन में भी कहा गया है कि अप्पा दंतो सुही होई, अस्सि लोए परम्थच -आत्मा का दमन करने वाला इहलोक और परलोक में सुखी होता है। परमात्म भक्ति- भक्ति के उ. यशोविजयजी ने चार सोपान बताए हैं- १. प्रीतियोग २. भक्तियोग ३. वचनयोग ४. असंगयोग (परमात्मा के साथ एकरूप होना) एकान्तस्थल का सेवन। सम्यक्त्व की स्थिरता। प्रमादरूपी शत्रु का विश्वास नहीं करना इसलिए भगवान् महावीर ने भी कहा है- 'सयमं गोमयं मा पमायए' -हे गौतम! एक समय का प्रमाद मत कर। आत्माज्ञान के प्रति निष्ठा। कुविकल्पों का त्याग। आगमों पर दृढ़ श्रद्धा सर्वत्र आगमशास्त्रों को अग्रस्थान प्रदान करना। हरिभद्रसूरि ने आगमों की महत्ता बताते हुए कहा है“अणाहा कहं हंता न हुतो जई जिणागमो", अर्थात जो जिनागम नहीं होते, तो हमारे जैसे अनाथ की क्या दशा होती? तत्व का साक्षात्कार करना (आत्मसाक्षात्कार)। ज्ञानानंद की मस्ती में रहना।६६६
१४.
१५.
१६. २०.
स्तुत्या स्मयो न कार्यः कोपोऽपि च निन्दया जनैः कृतया। सेव्या धर्माचार्यास्तत्त्वं जिज्ञासनीयं च।।४१।। शौचं स्थैर्यमदंभो वैराग्यं चात्मनिग्रहः कार्यः। दृश्या भवगतदोषाश्चिन्तयं देहादिवैरूपयम् ।।२।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org