________________
३६६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
इस प्रकार उ. यशोविजयजी ने उपर्युक्त तथ्यों को उजागर करते हुए यह सूचित किया है कि बहिरात्मा से अन्तरात्मा बनने के लिए और ऊपर के गुणस्थान में आरोहण के लिए इनका पालन करना आवश्यक है।
परमात्मा का स्वरूप आत्मा का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप परमात्मा कहलाता है। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा परमात्मा है। प्रत्येक जीव में शिव है। उसका उद्घोष है- “अप्पा सो परम अप्पा", अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। सत्ता की दृष्टि से बीजरूप में प्रत्येक आत्मा में परमात्मस्वरूप रहा हुआ है, किन्तु कर्मों के घनीभूत आवरण के कारण उसका शुद्ध स्वरूप अप्रकट है। कर्मों का क्षय होने पर उसका शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है।
उ. यशोविजयजी ने सर्वउपाधि से रहित आत्मा को परमात्मा माना है। उन्होंने मुख्य रूप से सिद्ध परमात्मा की व्याख्या करते हुए कहा है कि परमात्मा कायादि उपाधियों से रहित होता है। परमात्मस्वरूप के मुख्य चार लक्षण उन्होंने बताए हैं, वे इस प्रकार हैं
१. केवलज्ञान २. योगनिरोध ३. समग्र कर्मों का क्षय ४. सिद्धिनिवास। ये लक्षण उन्होंने सिद्ध परमात्मा को लक्ष्य में रखकर कहे हैं।
जैनदर्शन में परमात्मा के दो प्रकार माने गए हैं
१. अरिहन्त २. सिद्धपरमात्मा १. अरिहन्तपरमात्मा -
जब तक केवल ज्ञान प्रकट नहीं होता है, तब तक परमात्मस्वरूप प्रकट नहीं होता है। जब तक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय- इन चार घाति कर्मों का क्षय न हो, तब तक केवलज्ञान प्रकट नहीं होता है। चार
भक्तिीभगवति धार्या सेव्यो देशः सदा विविक्तश्चं स्थातव्यं सम्यक्त्वे विश्वस्यो न प्रमादरिपुः ।।४३।। ध्येयात्मबोधनिष्ठा सर्वत्रट पः पुरस्कार्यः। त्यक्तव्याः कुविकल्पाः स्थेयं वृद्धानुवृत्या च।।४४ ।। साक्षात्कार्य तत्त्वं चिद्रूपानंदं मेदुरैर्भाव्यम् हितकारी ज्ञानवतामनुभववेद्यः प्रकारोऽयम् ।।४५ ।। अनुभवाधिकार-२०, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org