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३६०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
सांसारिक चेष्टा क्रिया-प्रक्रिया बालकों द्वारा खेल-खेल में मिट्टी के बनाए हुए घर के समान प्रतीत होती है, इसलिए सम्यग्दृष्टि संसार में रहते हुए भी संसार में आसक्त नहीं होते हैं और इसीलिए उन्हें हम जघन्य अन्तरात्मा कह सकते है।
मध्यम अन्तरात्मा - देशविरतसम्यग्दृष्टि नामक पंचम गुणस्थानक से लेकर उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक स्थित आत्माएँ मध्यम अन्तरात्मा के अन्तर्गत आती है। जैन-परम्परा में साधना का प्रवेशद्वार सम्यग्दर्शन है। प्रवेशद्वार में प्रवेश करने के बाद जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता है, वैराग्यभाव भी बढ़ता जाता है। वह चिन्तन करता है कि संसार का उच्छेद किस प्रकार हो? आत्मा का शुद्ध स्वरूप कैसे प्राप्त हो? इस प्रकार चिंतन करते-करते सम्यग्ज्ञान द्वारा देश-विरति और सर्वविरतिभाव की तरफ जाने के लिए आत्मा प्रेरित होती है। इस प्रकार साधना के क्षेत्र में गतिमान साधक के दो प्रकार हैं- १. व्रतधारी श्रावक २. महाव्रतधारी श्रमणा
चूंकि मध्यम अन्तरात्मा में देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से ले उपशान्तमोह गुणस्थान तक सात गुणस्थानों की सत्ता होती है। इस आधार पर हमें यह मानना होगा कि मध्यम अन्तरात्मा के भी अनेक उपविभाग हैं। यहाँ हम मध्यम अन्तरात्मा के तरतमता की दृष्टि से तीन भेद कर सकते हैं
१. निम्न मध्यम अन्तरात्मा २. मध्यम-मध्य अन्तरात्मा
उत्तम-मध्यम अन्तरात्मा। देशविरति को निम्न-मध्यम अन्तरात्मा, सर्वविरत को मध्यम-मध्यम अन्तरात्मा और आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से उपशान्तमोह गुणस्थान तक श्रेणी-आरोहण करने वाली आत्मा को उत्तम-मध्यम अन्तरात्मा कहते हैं।
निम्न मध्यम अन्तरात्मा - इसमें देशविरतिश्रावक आते हैं, जो आंशिक रूप से सम्यक् आचार का पालन करते हैं। सभी गृहस्थश्रावक साधना की दृष्टि से समान नहीं होते हैं। उनमें भी श्रेणीभेद होता है।
हरिभद्रसरि, आ. हेमचन्द्र आदि जैनाचार्यों ने अपने ग्रन्थों में श्रावकाचार का एक सरलतम प्रारूप भी निर्धारित किया है। श्रावक के आचार को चार भूमिकाओं में विभाजित किया जा सकता है
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