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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३६१
१. सात व्यसन का त्याग २. मार्गानुसारी के पैंतीस गुण ३. श्रावक के बारहव्रत ४. श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं। हमनें यहाँ विस्तार के भय से श्रावकाचार का सम्पूर्ण विवेचन न करके मात्र संकेत ही किया है।
मध्यम-मध्यम अन्तरात्मा (सर्वविरत अन्तरात्मा) - मध्यम- मध्यम अन्तरात्मा के अन्तर्गत सर्वविरत मुनिवर्ग को समाहित किया जाता है। गुणस्थान की अपेक्षा से सर्वविरत के दो विभाग किए जाते हैं। १. प्रमत्तसंयत २. अप्रमत्तसंयत।
कोई भी सर्वविरत जीवनपर्यन्त न तो सर्वथा अप्रमत्त रह सकता है, न ही प्रमत्त रहता है। इस कारण दोनों ही गुणस्थानवर्ती मुनि मध्यम-मध्यम अन्तरात्मा के अन्तर्गत ही सन्निहित हैं। इस अवस्था में मुनिजीवन के आवश्यक कर्तव्यों का पालन अनिवार्य है। ये आवश्यक कर्तव्य निम्न हैं
पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्तियों का पालन आवश्यक है। दिगम्बर परम्परानुसार मूलाचार में श्रमण के २८ गुण बताए गए हैं। श्वेताम्बर परम्परानुसार ६० २७ मूलगुण बताए गए हैं, जो निम्न हैं
(१-६) पंचमहाव्रत के पालनसहित रात्रिभोजनत्याग (७-१२) छःकाय जीव की रक्षा (१३-१७) पंचेन्द्रिय पर विजय (१८) लोभत्याग (वैराग्य) (१६) क्षमा धारण करना (२०) भाव शुद्ध रखना (२१) प्रत्युपेक्षणादि क्रिया की शुद्धि (२२) विनय वैयावच्च, स्वाध्यायादि संयम के व्यापारों का सेवन (२३-२५) मन-वचन-काया की दुष्ट प्रवृत्ति का निरोध (२६) शीत आदि परिषह सहन करना (२७) मरणांत उपसर्ग सहन करना।
उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, आवश्यकनियुक्ति आदि ग्रन्थों में मुनिजीवन के स्वरूप का विस्तार से विवेचन किया गया है। यहाँ हमने मात्र संकेत ही किया है।
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छब्वयछकायरक्खा, पंचिंदियलोहनिग्गहोखंती। भावविसोहि पडिले हणाइकरणे विसुद्धी य ।।२८।। संजमजोए जुत्तो अकु सलमणवयणकायसंरोहो। सीयाइपीउसहणं, मरणंत उवसग्गसहणं चं।।२६ | संबोधसत्तरी-रत्नशेखरसूरि
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