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३५८/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
शरीरादि सारी प्रवृत्तियों में जो निर्लिप्त रहकर मात्र साक्षीरूप में ही रहता है, वह अन्तरात्मा कहलाता है । अनंतज्ञान, दर्शन, चारित्र से मुक्त आत्मा जब अपने स्वरूप का चिंतन करती है, तब उसे अनुभव होता है कि इंद्रियादि 'पर' हैं। शरीर और बाह्य सम्बन्ध भी पर हैं। उसे संसारी सम्बन्ध त्याज्य लगते हैं। राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने की भावना जाग्रत होती है और स्वयं अति विशुद्ध सनातन ज्योतिर्मय है, यह विचार जिसे आ जाता है, वह अन्तरात्मा है।
डॉ. सागरमल जैन१८४ लिखते हैं- “बाह्य विषयों से विमुख होकर अपने अन्तर में झांकना अन्तरात्मा का लक्षण है । "
अंतरात्मा एक साधक अवस्था है। इसे विकासशील अवस्था भी कह सकते हैं। चूँकि यह अवस्था न शून्य है, न ही पूर्ण है । यह मध्य की अवस्था है। अन्तरात्मा से परमात्मा तक पहुँचने में बहुत सीढ़ियाँ पार करना पड़ती हैं, अतः सभी अन्तरात्माओं के परिणाम एक जैसे नहीं होते हैं। किसी ने चलना ही प्रारम्भ किया है, कोई मध्य में पहुँचा है और कोई मंजिल के समीप है। विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर अन्तरात्मा के तीन भेद किए गए हैं, जिसका वर्णन कार्तिकेयानुप्रेक्षा६८५, द्रव्यसंग्रहटीका ६८६ एवं नियम सार की तात्पर्यवृत्ति टीका _ ६८७ में उपलब्ध होता है।
उ. यशोविजयजी ने भी आठ दृष्टि की सज्झाय में जो अन्तिम की चार दृष्टियाँ बताई हैं, उनका भी अन्तरात्मा की अवस्थाओं के समान ही वर्णन किया गया है।
अन्तरात्मा के तीन भेद इस प्रकार हैं
१.
जघन्य अन्तरात्मा
आत्मा को जिस साध्य को साधना हो, उसके साधनों का परिपूर्ण ज्ञान होना चाहिए। जब तक सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है, तब तक अज्ञानावस्था में व्यक्ति बहिरात्मा कहलाता है, लेकिन जैसे ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, वह अन्तरात्मा की श्रेणी में आ जाता है। जघन्य अन्तरात्मा के वर्ग में अविरतसम्यग्दृष्टि जीव आते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि उसे कहते हैं, जिसका दृष्टिकोण तो सम्यक् होता है, किन्तु आचरण सम्यकू नहीं
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'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन', भाग २, पृ. ४४७ कार्तिकेयानुप्रेक्षा - १६७
द्रव्यसंग्रहटीका -गा. - १४
नियमसार तात्पर्यवृत्तिटीका गा. - १४६
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