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. उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३५७
शरीर का मैं दृष्टा हूँ, धन स्वजनादि पर हैं, शुभाशुभ कर्मविपाकजन्य सारे संयोग-वियोग हैं, इस प्रकार जानकर संयोग में हर्षित नहीं होता हैं, वियोग में दुःखी नहीं होता हैं, ऐसे ज्ञाता व दृष्टा की तरह रहने वाले अंतरात्मा कहलाते हैं। गीता में जो स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताए हैं, वह अन्तरात्मा के स्वरूप के समान ही हैं। गीता में स्थितप्रज्ञ के स्वरूप का कथन इस प्रकार किया है- जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से विरक्त हैं, जिसका मन स्थिर है, वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। जैसे कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही अन्तरात्मा या स्थितप्रज्ञ इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है। साथ ही दुःखों की प्राप्ति होने पर उसके मन में उद्वेग नहीं होता है और सुखों की प्राप्ति में वह सर्वथा निःस्पृह रहता है। उसके राग, भय, क्रोधादि नष्ट हो जाते हैं। ऐसा अन्तरात्मा ही परमात्मा बनता है। इस बात को गीता में स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि अन्तरात्मा आत्मा में ही रमण करने वाला, आत्मज्ञान में ही रहने वाला, परमात्मा के साथ एकत्व को प्राप्त कर ब्रह्म (परमात्मा) बन जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता में स्थितप्रज्ञ के लक्षणों में आत्मज्ञान को प्रमुख बताया गया है । ६८२
अन्तरात्मा एक साधक अवस्था है और साध्य परमात्मा है। साधक अन्तरात्मा का संत आनंदघन ने भी स्तवनों और पदों के माध्यम से सुंदर चित्रण किया है। वे भगवान् सुमतिनाथ के स्तवन में अन्तरात्मा को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं
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६८.
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कायादिक नो हो साखि घर रह्योः
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अन्तर आतमरूप सुज्ञानि । '
कायादेः समधिष्ठायको भवत्यंतरात्मा तु । ७ ।। पृथगात्मानं कायात्पृथक् च विद्यात्सदात्मनः कायं
उभयोर्भेदज्ञाताऽत्मनिश्चये न स्खलेद् योगी ।। ६ । योगशास्त्र - द्वादशप्रकाश - हेमचन्द्राचार्य
यदा संहरते चायं कूर्मोऽग्डानीव सर्वशः इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ५८ ।। योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्योतिरेव यः । स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ।। २४ ।- गीता समुतिनाथ स्तवन - आनंदघन चौबीसी
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