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________________ ३५६ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री ६७७ योगीन्दुदेव ने योगसार में अंतरात्मा के लिए पण्डित आत्मा का प्रयोग किया है। उन्होंने कहा है- " जो परमात्मा को, अर्थात् शुद्धआत्मस्वरूप को समझता है, और जो परभाव का त्याग करता है, उसे पंडित - आत्मा या अंतरात्मा कहते हैं। " आगे वे स्पष्ट करते हैं कि “आत्मास्वरूप को जाने बिना व्रत, तप, संयम, शील आदि महत्त्व नहीं रखते हैं, क्योंकि इनसे उपार्जित पुण्य से जीव स्वर्ग में जाता है, मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है। जो पुण्य-पाप, दोनों को छोड़कर आत्मा को जानता है, वही अन्तरात्मा परमात्मा बन सकता है। हम देखते हैं कि योगीन्दुदेव ने साधना के क्षेत्र में आत्मज्ञान को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। " ६७८ इस प्रकार ,,६७६ आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में अन्तरात्मा का स्वरूप आलेखित करते हुए कहा है- “अन्तरात्मा शरीर से शरीरधारी को भिन्न देखता है । " ६ मैं कौन हूँ और मेरा क्या स्वरूप है, इस प्रकार का चिन्तन अन्तरात्मा की ओर ले जाता है। उन्होंने कहा है- “मैं शरीरादि से भिन्न, राग-द्वेषादि से रहित, अमूर्त्तिक, शुद्ध तथा ज्ञानमय हूँ”, इस प्रकार के आत्मविषयक संकल्प का नाम अन्तरात्मा है। उन्होंने ज्ञानार्णव के २८वें सर्ग में न केवल अन्तरात्मा का, अपितु उसके तीन भेदों का भी संकेत किया है। . ६६० पाहुड़द में मुनिरामसिंह ने भेदज्ञान पर जोर देते हुए कहा है कि जिसने ज्ञानस्वरूपी आत्मा को देह से भिन्न जान लिया, वही अन्तरात्मा है। भेदज्ञान के बाद अन्य ज्ञान को जानने से भी क्या ? आचार्य हेमचन्द्राचार्य ६६१ ने शरीरादि के अधिष्ठाता को अंतरात्मा कहा है । शरीर का मैं अधिष्ठाता हूँ, शरीर में रहने वाला हूँ, शरीर मेरा घर है या ६७७ ६७८ B Στο जो परियाणइ अप्पु परु जो परभावचएइ । सो पंडिउ अप्पा मुणहु सो संसारु मुएइ || ८ | योगसार - योगीन्दुदेव व तव संजम सीलु जिय ए सव्वई अकयत्थु । जाव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु ।। ३१ ।। पुण पावइ सग्ग जिउ पावएँ जरय-निवासु । बे छंडिचि अप्पा मुणइ तो लब्भइ सिववासु || ३२ ।।- योगसार - योगीन्दुदेव बहिरात्मार्थ विज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनम् ।।११।। -ज्ञानार्णव - शुभचन्द्र बुज्झहु बुज्झहु जिणु भणइ को बुज्झइ हलि अण्णु अप्पा देह णाणभर छुडु बुज्झियउ विभिण्णु || ४१ ।। - पाहुड़दोहा - रामसिंह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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