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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३५५ १. जघन्य अन्तरात्मा २. मध्यम अन्तरात्मा ३. उत्कृष्ट अन्तरात्मा। उन्होंने अविरतसम्यग्दृष्टि जीव को जघन्य अन्तरात्मा कहा तथा उसके तीन प्रमुख गुण बताए है- (१) “परमात्मा का परम भक्त (२) आत्मनिंदक (३) गुणानुरागी।"६७३ चारित्र मोहनीयकर्म के उदय से जघन्य अन्तरात्मा व्रतादि ग्रहण नहीं कर सकते हैं, परंतु उनकी श्रद्धा दृढ़ होती है तथा वे अपने विभाव परिणामों की निंदा करते ही रहते हैं। मध्यम अन्तरात्मा का स्वरूप बताते हुए स्वामी कार्तिकेय कहते हैं- “जो जिनवचनों में अनुरक्त होते हैं, जिसके कषाय मन्द होते हैं, जो सत्त्वशाली होते हैं, जो प्रतिज्ञा से चलित नहीं होते हैं, ऐसे व्रतयुक्त श्रावक तथा प्रमत्तसाधु मध्यम अंतरात्मा होते हैं।"६७४ उन्होंने उत्कृष्ट अन्तरात्मा के भी तीन महत्त्वपूर्ण लक्षण प्रतिपादित किए१. पंचमहाव्रत से युक्त २. नित्य धर्मध्यान और शुक्लध्यान में स्थित ३. निद्रा आदि प्रमादों के विजेता। ६७५ इस प्रकार अंतरात्मा का उन्होंने विस्तार से वर्णन किया है। योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश में अन्तरात्मा का स्वरूप निरूपण करते हुए कहा है- “जो देह से भिन्न ज्ञानमयी आत्मा को जानता है तथा परमसमाधि में रहते हुए विवेक से युक्त होता है, वह अन्तरात्मा है।"६७६ उन्होंने स्पष्ट किया कि बहिरात्मा तो त्याज्य है, लेकिन परमात्मा की अपेक्षा से अंतरात्मा भी हेय है, अतः शुद्ध परमात्मा का ही ध्यान करने योग्य है। मंजिल तो परमात्मा ही है। - अविरयसम्मद्दिट्ठी होति जहण्ण जिणंदपयभत्ता। अप्पाणं जिंदंता, गुणगहणे सुटुअणुरत्ता ।।१६७।। -लोकानुप्रेक्षा -कार्तिकेयानुप्रेक्षा सावयगुणेहिं जुत्ता, पमत्तविरदा य मज्झिमा होति। जिणवयणे अणुरत्ता, उवसमसीला महासत्ता ।।१६६ ।। -वही पंचमहब्वयजुत्ता, धम्मे सुवके वि संठिदा णिच्च। णिज्जियसयलपमाया, उविकट्ठा अन्तरा होति।।१६६ | वही देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ। परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।।१४।। परमात्मप्रकाश -योगीन्दुदेव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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