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३५४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
उ. यशोविजयजी कहते हैं- "सुखशीलता के प्रवाह का अनुसरण करने वाली वृत्ति बहिरात्मा की होती है। अंतरात्मा की वृत्ति संसार के प्रवाह के विपरीत आत्मरमणता में होती है । ६७०
स्वामी कार्तिकेय अंतरात्मा का स्वरूप बताते हुए उसके तीन लक्षणों को स्पष्ट करते हैं
१. जिनवचन में प्रवीणता २. भेदज्ञान से अष्टमदविजेता। ६७१
जब तक प्राणी को जिनवाणी का सम्यक् ज्ञान नहीं होता है, तब तक उसमें विवेक भी जागृत नहीं होता है, अतः स्वामी कार्तिकेय ने अन्तरात्मा से परमात्मा तक पहुंचने के लिए जिनवचनों को समझने वाली निर्मलबुद्धि को जीव के लिए आवश्यक बताया है । भेदज्ञान भी इसी से उत्पन्न होता है। भेदज्ञान की दुर्लभता को उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में स्पष्ट किया है। उन्होंने कहा है कि संसार में देह और आत्मा का अभेदरूप अविवेक, अर्थात् देह में आत्मबुद्धि सर्वदा सुलभ है, किन्तु उसका भेदज्ञान कोटि भवों में भी उपलब्ध नहीं होता है। अतः भेदज्ञान अतिदुर्लभ है और अन्तरात्मा का प्रमुख लक्षण भी है। तीसरा लक्षण अष्टमद विजेता बताया है। जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या और ऐश्वर्य - इन अष्टमद से अन्तरात्मा ग्रसित नहीं होगा। उ. यशोविजयजी ने भी इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा है- “रूपवती दृष्टि, अर्थात् बहिरात्मा ही रूप को देखकर रूप (पुद्गल ) पर मोहित होती है, जबकि रूपरहित दृष्टि, अर्थात् अन्तरात्मा तो आत्मा में ही मग्न रहती है, " क्षणभंगुर ऐश्वर्यादि का मद उसमें कहाँ से होगा ? अन्तरात्मा परमात्मा बनने के लिए अनेक कक्षाओं से गुजरता है। उसके आधार पर स्वामी कार्तिकेय अन्तरात्मा के तीन भेद किए हैं
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अतः नश्वर,
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आनुश्रोतसिकी वृत्तिर्बालानां सुखशीलता ।
प्रातिश्रोतसिकी वृत्तिज्ञानिनां परमं तपः ॥ २ ॥ - तपाष्टक - ३१, ज्ञानसार
'जिनवयणे कुसलो, भेयं जाणंति जीवदेहाणं ।
युक्त और ३.
णिज्जियदुट्ठट्ठमया, अन्तर अप्पा य ते तिविहा ।।१६४ । । लोकानुप्रेक्षा- कार्तिकेयानुप्रेक्षा रूपे रूपवती दृष्टिर्दृष्ट्वा रूपं विमुह्यति ।
मज्जत्यात्मनि नीरूपे, तत्त्वदृष्टिस्त्वरुपिणी । । १ । । - तत्त्वदृष्टि - अ. १६ - ज्ञानसार
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