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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३५३ आत्मा अंतरात्मा कहलाती है। अंतरात्मा को हेय, ज्ञेय, उपादेय आदि का विवेक जाग्रत हो जाता है तथा संसार में रहते हुए भी वह अलिप्त भाव से जलकमलवत् निर्लेप होकर संसार में रहती है। अंतरात्मा संसार में रहते हुए भी उसके हृदय में संसार की स्थापना नहीं रहती है। उसका संसार में उसी प्रकार व्यवहार रहता है, जैसा कि धायमाता का दूसरों के बालक के साथ होता है। कहा भी गया है “सम्यग्दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल। अन्तर थी न्यारो रहे, ज्यों धाय खिलावे बाला।" कुन्दकुन्दाचार्य ने मोक्षपाहुड ६६८ आत्मसंकल्परूप आत्मा को अन्तरात्मा कहा है। उनकी दृष्टि में अन्तरात्मा वही है, जिसने भेदविज्ञान के द्वारा स्व पर आत्म-अनात्म का विवेक उपलब्ध कर लिया है। उन्होंने अन्तरात्मा के तीन लक्षणों को स्पष्ट किया है- १. अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि होती है। २. वह सदैव अष्टकों को नष्ट करने के लिए प्रयासरत रहती है और ३. सदैव अपने आत्मस्वरूप में रमण करती है। अन्तरात्मा बने जीव स्वस्वरूप का ध्यान करते हुए परद्रव्य से पराङ्मुख रहते हैं तथा सम्यक्त्वचारित्र का निरतिचार पालन करते हुए परमात्मपद को प्राप्त कर लेते हैं। नियमसार५५६ में कुन्दकुन्द ने अन्तरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो निजस्वरूप ध्यान में मग्न रहता है तथा सम्पूर्णरूप से अन्तर्मुख रहते हुए शुभ तथा अशुभ सभी विकल्पों से मुक्त होता है, वह अन्तरात्मा होता है। उनकी दृष्टि में अन्तरात्मा निरंतर धर्म ध्यान और शुक्लध्यान का आलम्बन लिए हुए रहता है तथा आर्तध्यान और रौद्रध्यान से सदैव दूर रहता है। अन्तरात्मा में स्थित वह मोहनीयकर्म को क्षीण करता है। वह संसार को तृणवत् समझता हैं, अर्थात् उसकी दृष्टि में संसार और पौद्गलिक पदार्थों का कोई मूल्य नहीं रहता है। पुनर्न याति मालिन्यं, सोऽन्तरात्मा परः शचिः।।५ । विद्याष्टक, १४, ज्ञानसार अंतरप्पा हु अप्पसंकल्पो। ६/५ सद्दब्बरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण। सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्टट्ठकम्माणि ।।१४।-मोक्षप्राभृत (६/५, १४) -अष्टप्राभृत जापसु जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतरंगप्पा।।१५०।।। जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा ।।१५१ । नियमसार . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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