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________________ ३५२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री बहिरात्मा में मिथ्यात्व का उदय होने से उनका ज्ञान, अज्ञान की कोटि में आता है, अतः बहिरात्मा में पाँचों ज्ञानों में से एक भी ज्ञान नहीं होता है, साथ ही केवलदर्शन भी नहीं होता है। बहिरात्मा के स्वरूप को जानने के बाद अब हम अन्तरात्मा के स्वरूप का चित्रण करेंगे। अन्तरात्मा का स्वरूप बहिरात्मा जीव जब संसार के भौतिक सुखों से थक जाता है, अथवा जब उसे सुख के बदले दुःख ही प्राप्त होता है, और उसे भौतिक सुख की क्षणभंगुरता, पराधीनता आदि समझ में आती है, तब उसे संसार के प्रति निर्वेद उत्पन्न होता है। वह संसार से विमुख होने लगता है और उसकी अंतरखोज प्रारम्भ हो जाती है। ऐसे भयंकर संसारसमुद्र से उद्विग्न बनी जाग्रत आत्मा पूर्ण प्रयत्न से संसाररूपी समुद्र के पार जाने की इच्छा रखती हैं। ५५५ सद्गुरु के समागम से, शास्त्रों के पठन से उसका भेदज्ञान स्पष्ट होने लगता है। आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया में बहिरात्मा प्रगति करते हुए मिथ्यात्व की पकड़ को छोड़ देती है और अंतरात्मा बन जाती है। उ. यशोविजयजी अंतरात्मा के स्वरूप का चित्रांकन करते हुए कहते हैं"जब तत्त्वों के ऊपर श्रद्धा, ज्ञान, महाव्रत, अप्रमत्तदशा की प्राप्ति होती है तथा मोह जब परास्त हो जाता है, तब अंतरात्मा व्यक्त होती है।"६६६ तात्पर्य यह है कि जो जीव समकित की प्राप्ति के बाद परमात्मा बनने की दिशा में अंतर्मुख होकर अपना पुरुषार्थ आरंभ कर दे, ऐसी आत्माओं को अंतरात्मा कहते हैं। उ. यशोविजयजी अंतरात्मा की पवित्रता की चर्चा करते हुए कहते हैं- “जो समतारूपी कुण्ड में स्नान करके पाप से उत्पन्न मल का त्याग कर पुनः मलिन नहीं होता है, वह अन्तरात्मा परम पवित्र है।"६६० चतुर्थ गुणस्थानक से बारहवें गुणस्थानक तक ६६५. ज्ञानी तस्माद् भवाम्भोधेर्नित्योद्विग्नोऽतिदारुणात्। तस्य सन्तरणोपायं सर्वयत्नेन कांक्षति ।।५।।-भवोद्वेग-२२, ज्ञानसार-उ. यशोविजयजी तत्त्वश्रद्धा ज्ञानं महाव्रतान्यप्रमादपरता च। मोहजयश्च यदा स्यात् तदान्तरात्मा भवेद् व्यक्तः।।२३। अनुभवाधिकार-अध्यात्मसार ६६७. यः स्नात्वा समताकुण्डे, हित्वा कश्मलजं मलम्। ६६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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