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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३५१
सकते हैं, कि बहिरात्मा में मुख्य रूप से अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ ही प्रधान रहता है। बहिरात्मा अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ के अर्थी होते हैं।
बहिरात्मा और लेश्या - लेश्या कर्म के निर्झर के रूप में है। जैसे निर्झर नित नए-नए रूप में प्रवाहित होता है, उसी प्रकार लेश्या का प्रवाह एक जीव के साथ अपने असंख्य रूप दिखलाता है। जीव के बदलते हुए परिणाम या मनोभावों और उनके आधार पर कर्मवर्गणाओं से बने हुए आभामण्डल को लेश्या कहा जाता है। मनोभावों को भावलेश्या और कर्मवर्गणा से निर्मित व्यक्ति के आभामण्डल को द्रव्यलेश्या कहा जा सकता है। मनोभाव शुभ व अशुभ- दो प्रकार के होते हैं। इन मनोभावों की तरतमता के आधार पर जैनदर्शन में छः लेश्या मानी गई हैं
१. कृष्णलेश्या २. नीललेश्या ३. कापोतलेश्या ४. तेजोलेश्या ५. पद्मलेश्या ६. शुक्ललेश्या।
इनमें प्रथम तीन लेश्याएँ अशुभ और अन्तिम तीन लेश्याएँ शुभ होती हैं, किन्तु प्रश्न यह उठता है कि बहिरात्मा में कितनी तथा कौन-कौन सी लेश्याएँ होती हैं? सामान्यतया हम यह सकते हैं कि बहिरात्मा में तीनों अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं, क्योंकि बहिरात्मा सदैव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं और अनंतानुबंधीकषाय का उदय जब तक है, लेश्या अशुभ ही बनी रहती है। यद्यपि भावलेश्या की अपेक्षा से शुभलेश्याएँ भी सम्भव हैं, किन्तु द्रव्यलेश्या तो अशुभ ही रहती है।
कषाय को लेकर यदि हम बहिरात्मा पर विचार करें, तो अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ- चारों का उदय बहिरात्मा में होता है, अतः हम कह सकते हैं कि बहिरात्मा में अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलनइन चारों प्रकार के क्रोध, मान, माया और लोभ, अर्थात् सोलह प्रकार की कषाय होती हैं।
बहिरात्मा और उपयोग - ग्रन्थों में उपयोग के बारह भेद बताए गए हैं। तीन अज्ञान, पाँच ज्ञान और चारदर्शन ये बारह जीव के उपयोग हैं। इन उपयोगों में से बहिरात्मा में तीन अज्ञान तथा तीन दर्शन- इस तरह छः उपयोग पाए जाते हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं- १. मति अज्ञान २. श्रुत अज्ञान ३. विभंगज्ञान ४. चक्षुदर्शन ५. अचक्षुदर्शन ६. अवधिदर्शन।
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