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________________ ३५०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री उपादेय जानकर जीव गुणप्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। प्राप्त किए हुए गुणों को स्थिर करना कुंभकभाव प्राणायाम है। यहाँ बाह्यभाव नगण्य हो जाता है, अतः इसे मंदतम बहिरात्मा कह सकते हैं। काल की अपेक्षा से यदि बहिरात्मा का भेद करें, तो बहिरात्मा के तीन भेद इस प्रकार हो सकते हैं१. अनादि अनंत बहिरात्मा - सभी जीवों का बहिरात्मभाव अनादिकाल से हैं, किंतु जो जीव अभव्य होते हैं, वे कभी भी मोक्ष को नहीं जा सकते हैं, अतः उनकी पौद्गलिक सुख के प्रति लालसा बनी रहती है। उनका बहिरात्मभाव अनंतकाल तक रहने वाला होने से उन्हें अनादिअनंत बहिरात्मा कह सकते हैं। इसी प्रकार जातिभव्य भी अनादिअनंत बहिरात्मा होते हैं, क्योंकि युक्ति के योग्य होते हुए भी उनकी मुक्ति सम्भव नहीं है। २. अनादिसान्त बहिरात्मा - जो भव्यजीव हैं, उनमें भी बहिरात्मभाव अनादि से ही है, किन्तु भव्यजीव होने से भविष्य में उनका मोक्ष संभव है। बहिरात्मभाव को छोड़े बिना अन्तरात्मा नहीं बना जा सकता है और अन्तरात्मा बने बिना परमात्मा नहीं बना जा सकता है। उनके बहिरात्मभाव का कभी न कभी अंत होने से उन्हें अनादिसांत बहिरात्मा कह सकते हैं। ३. सादिसान्त बहिरात्मा- जो जीव बहिरात्मभाव को छोड़कर अन्तरात्मभाव को प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु उसमें स्थिर नहीं रह पाते हैं, वे एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर पुनः पतन के गर्त में गिर जाते हैं। जिसने एक बार बहिरात्मभाव से अन्तरात्मभाव प्राप्त किया है और पुनः बहिरात्म भाव में चला गया, तो भी उस जीव का बहिरात्मभाव अधिक से अधिक देशोनअर्धपुद्गल परावर्त तक ही रहता है, फिर वह निश्चित ही अन्तरात्मभाव प्राप्त कर परमात्मपद को प्राप्त करता है इसलिए उस जीव को सादिसान्त बहिरात्मा कह सकते हैं। बहिरात्मा और पुरुषार्थ - विभिन्न ग्रन्थों में पुरुषार्थ चार प्रकार के बताए गए हैं- १. धर्मपुरुषार्थ २. अर्थपुरुषार्थ ३. कामपुरुषार्थ और ४. मोक्षपुरुषार्थ। इन चार प्रकार के पुरुषार्थों में से काम और मोक्ष- ये दो पुरुषार्थ साध्य हैं और उनके उपायभूत अर्थ और धर्म- ये दो पुरुषार्थ साधन स्वरूप है। अर्थ के उपार्ज से कामसुख (भोगसामग्री) की प्राप्ति होती है। बहिरात्मा कामसुख के अर्थी होते हैं, अर्थात् पौद्गलिक सुख की ओर ही उनकी दृष्टि रहती है। अतः कामसुख के अर्थी जीव सतत अर्थोपार्जन में व्यस्त रहते हैं। इस प्रकार हम कह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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