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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३४६ और कषाय भी मंद हो जाते हैं। यशोवियजजी ६६२ कहते हैं कि मित्रादृष्टि में आत्मबोध तृण की अग्नि के समान अतिशय अल्प तथा तारादृष्टि में कण्डे (उपले) की अग्नि के समान अल्प होता है। इस प्रकार दोनों दृष्टि में आत्मतत्त्व का ज्ञान निर्बल होता है। इन दृष्टियों का अधिकारी जीव भोगरसिक से कुछ अंश में आत्मगुण का रसिक बनता है, अतः उसमें बहिरात्मभाव निर्बल होने से उसे मंद बहिरात्मा कह सकते हैं। मंदतर बहिरात्मा - जब जीव को तीसरी बलादृष्टि की प्राप्ति होती है, तब उसका आत्मबोध भी बढ़ता है। उ. यशोविजयजी६६३ कहते हैं कि बलादृष्टि में जीव का बोध काष्ठ की अग्नि के समान होता है और उसमें तत्त्वश्रवण की इच्छा जाग्रत होती है और संसाराभिमुखता घटती है। इस दृष्टि में बहिरात्मभाव अल्प होने से इसे मंदतर बहिरात्मा कह सकते हैं। मंदतम बहिरात्मा - यह स्थिति मिथ्यात्वगुणस्थानक का अन्तिमकाल और सम्यक्त्व प्राप्ति के ठीक पूर्व के काल के समय की है। इस समय जीव को चौथी दीपा नामक दृष्टि की प्राप्ति होती है। "इसमें दीपक की प्रभा के समान ज्ञानगुण विकसित होता है तथा जीव को सद्गुरु के पास में तत्त्वश्रवण का योग प्राप्त होता है।"६६४ उ. यशोविजयजी दीप्रादृष्टि का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जीव को इस दृष्टि में भाव प्राणायाम की प्राप्ति होती है। इसमें बाह्यभावों का रेचन होता है, अशुभभाव आत्मा से दूर होते हैं तथा अंतरभावों का पूरक प्राणायाम होता हैं, अर्थात् बाह्यभावों की विमुखता और आत्मभाव की सन्मुखता बढ़ती है। क्रोध-मान-माया, लोभ, आसक्ति, तृष्णा, राग, द्वेष आदि दुर्गणरूपी बाह्यभाव को हेय तथा क्षमा, नम्रता, सरलता, संतोष आदि उत्तमगुणरूप आध्यात्मिक भावों को ६६६ ६६२. ऐह प्रसंग थी में कह्यु, प्रथम दृष्टि हवे कहीए रे जिहां मित्रा तिहां बोध जे, तृण अग्निश्योलहीये रे ।।६।। दर्शनतारा दृष्टि मां मनमोहनमेरे, गोमय अग्नि समान -आठदृष्टि की सज्झाय-उ यशोविजयजी त्रीजी दृष्टि बला कही जी, काष्ठअग्नि सम बोध । दोप नहीं आसन सधेजी,, श्रवण समीहा शोध । रे जिनजी, धम-धम तुज उपदेश।।9। वही "योगदृष्टि चोथी कहीनी, दीप्रा तिहां न उत्थान प्रणायाम ते भावथीजी, दीप प्रभासम ज्ञान। -आठदृष्टि की सज्झाय -उ. यशोविजयजी ६६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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