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३४८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
समय जिस विशिष्ट मधुर रस का आस्वादन होता है, उसी का वमन करते समय वैसा नहीं, किन्तु यत्किंचित् मधुर रस का अनुभव होता है; उसी प्रकार मध्यम बहिरात्मा को अनंतानुबंधीकषाय के उदय से मलिन ऐसे सम्यक्त्व का रसास्वाद आता है। उसमें वासनाओं पर विवेक का अंकुश लगाने की शक्ति नहीं होती है और आत्मा पुनः विस्मृति की दिशा में गतिशील हो जाती है। ३. मन्द बहिरात्मा - सैद्धान्तिक रूप से मिश्रगुणस्थानवर्ती आत्मा को मन्द बहिरात्मा कहा गया है। जिस आत्मा ने एक बार सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लिया है, किन्तु अपनी अस्थिर प्रवृत्ति के कारण उसमें दृढ़तापूर्वक अपने कदम को नहीं जमा पाई है, वह मन्द बहिरात्मा है। सत्यासत्य के निर्णय में जो संशयशील बनी हुई है, उसे कभी आध्यात्मिक अनुभूति का आनंद अपनी ओर आकर्षित करता है, तो कभी भौतिक आकाँक्षाएँ अपनी ओर आकर्षित करती हैं, ऐसी दुविधा की स्थिति वाले व्यक्ति को मन्द बहिरात्मा कहा गया है।"६६१
दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो अचरमातर्वकाल में स्थित जीव को तीव्र बहिरात्मा कह सकते हैं, किन्तु जब जीव अचरमावर्तकाल से चरमपुद्गलपरावर्तकाल में प्रवेश करता है, तब जीव की ओघदृष्टि, अर्थात् संसाराभिमुखदृष्टि कम होती जाती है। उसके मिथ्यात्वमोह के उदय का बल कमजोर हो जाता है। इस प्रकार उसका बहिरात्मभाव भी कम होता जाता है। वह
ओघदृष्टि से योगदृष्टि में प्रवेश करता है। यशोवियजजी ने आठ दृष्टि की सज्झाय में प्रथम की चार दृष्टियों मित्रदृष्टि, तारादृष्टि, बलादृष्टि और दीप्रादृष्टि को सम्यक्त्व के पूर्व भूमिका रूप माना है उनमें मिथ्यात्व अति मंद होता है, अतः उनका बहिरात्मभाव भी मंदतम् होता है। इन चारों दृष्टियों के आधार पर हम बहिरात्मा को १. मंद बहिरात्मा २. मंदतर बहिरात्मा ३. मंदतम बहिरात्मा इन तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं।
मंद बहिरात्मा - मित्रा तथा तारादृष्टि में वर्तते जीव को मंद बहिरात्मा कह सकते हैं। प्रथम मित्रादृष्टि में ही जीव को आत्मकल्याण करने की भावना शुरु हो जाती है। मोहनीयकर्म की शक्ति कम हो जाती है, जिससे विषयाभिलाषा
६६१. त्रिविध आत्मा की अवधारणा -साध्वी प्रियलताश्री
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