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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३४७ प्रस्तुत दोहे में आत्मा को वृक्ष की उपमा देकर कहा है कि आत्मरूपी वृक्ष पर बहिरात्मा और अन्तरात्मा नामक दो पंछी बैठे हुए हैं। आनंदधनजी ने बहिरात्मा को चेले के स्थान पर और अन्तरात्मा को गुरु के रूप में स्थापित किया
और यह बताया है कि चेले के रूप में इस बहिरात्मा ने विषय-कषाय आदि के वशीभूत होकर सम्पूर्ण जगत् में, अर्थात् चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते हुए कार्मणवर्गणारूप आटे का भक्षण किया, अर्थात् जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाया, जबकि गुरु रूप अन्तरात्मा ने आत्मस्थ होकर स्वस्वरूप में ही रमण किया। इस प्रकार आनंदघनजी ने बहिरात्मा को संसार में परिभ्रमण करने वाला और अन्तरात्मा को अपने में ही रमण करने वाला बताया है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जब तक जीव को आत्म और अनात्म का यथार्थ विवेक प्रकट नहीं होता है, तब तक वह बहिरात्मभाव में ही जीवन व्यतीत करता है।
बहिरात्मा की अवस्थाएँ एवं प्रकार सामान्यतया मिथ्यादृष्टि आत्मा को बहिरात्मा कहा गया है, किन्तु व्यक्ति के मिथ्यात्वगुण में तरतमता होने से बहिरात्मा में भी तरतमता होती है और उसी तरतमता के आधार पर उसके भेद किए जा सकते हैं। द्रव्यसंग्रह टीका ५६° में आत्मा के तीन भेद किए गए हैं। वे इस प्रकार हैं१. तीव्र बहिरात्मा - सैद्धान्तिक दृष्टि से मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती आत्मा को तीव्र बहिरात्मा कहा जाता है। वस्तुतः जिसे संसार, संसार के सुख और संसार के संबंध ही अच्छे लगते हैं, जिसके विवेक का प्रस्फुटन अभी नहीं हुआ है तथा जिसे आत्मस्वरूप की जानकारी भी नहीं होती है, ऐसा गहन अज्ञान के अंधकार में डूबा हुआ ओघदृष्टि वाला जीव तीव्र बहिरात्मा कहलाता है। २. मध्यम बहिरात्मा - सैद्धान्तिक दृष्टि से सास्वादनगुणस्थानवर्ती आत्मा को मध्यम बहिरात्मा कहा गया है। वस्तुतः जिस आत्मा ने सम्यक्त्व का आस्वादन कर लिया है, किन्तु वासनाओं और कषायों के तीव्र आवेगों के कारण उससे विमुख हो गई, अर्थात् सम्यक्त्व से पतित हो गई, वह मध्यम बहिरात्मा है। जैसे- खीर खाते
६६०. द्रव्यसंग्रह टीका गाथा-१४
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