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________________ ३४६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री प्रकार बहिरात्मा पर मोह का नशा चढ़ा होता है तथा तत्त्वों को अतत्त्व और अतत्त्वों को तत्त्व मानता है, सुदेव को कुदेव और कुदेव को सुदेव, हेय को उपादेय और उपादेय को हेय मानता है। ६५६ योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने भी त्रिविधआत्मा की चर्चा में बहिरात्मा का स्वरूप बताते हुए कहा है कि शरीरादि को आत्मबुद्धि से ग्रहण करने वाले को बहिरात्मा कहते हैं। आनंदघनजी ने भगवान् सुमतिनाथ के स्तवन में बहिरात्मभाव का स्वरूपकथन इस प्रकार किया है आतमबुद्धे कायाऽदिक ग्रो बहिराऽऽतम अघरूप सुज्ञानि। ६५० शरीर को आत्मा मानकर मैं और मेरे की ममता से जब तक ग्रसित होगा, तब तक जीव बहिरात्मा कहलाता है। बहिरात्मा की अवस्था मूर्छित अवस्था के समान है। बेभान अवस्था में धन के प्रति आसक्ति का चित्रण करते हुए कहा गया है कि- धन, धरती में गाडै बौरा, धूरि आप मुख लावै। मूषक सॉप होइगो आखर, ताते अलछि कहावै।। ६५८ बहिरात्मा परवस्तुओं को अपनी मानकर उन पर गहरी आसक्ति रखता है। वह धन के संरक्षण के लिए धन को जमीन में गाढ़ देता है और उसे धुलादि से ढक देता है परंतु वह व्यक्ति वास्तव में स्वयं के ऊपर ही धूल डाल रहा है। धन पर मूर्छा के कारण मरकर चूहा या सर्प बनकर उसी धन का रक्षण करता है। आगे वे कहते हैं कि एक आत्मा में दोनों अवस्थाएँ समाई हुई हैं तरुवर एक पंछी दोउ बैठे एक गुरु एक चेला चेले ने जुग चुण चुण खाया गुरु निरंतर अकेला। २५६ ६५७. ६५८. ६५६. आत्मधियाः समुपात्तः कायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा। कायादेः समधिष्ठायको भवत्यंतरात्मा तु।७। योगशास्त्र, द्वादशप्रकाश-आ. हेमचन्द्र सुमतिनाथस्तवन-आनंदघनचौबीसी श्री आनंदघनपद -६७ श्री आनंदघनपद -६८, गाथा- २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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