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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३४५
सुखबुद्धि रहती है । उपाध्याय यशोविजयजी ६५४ कहते हैं कि जीव अकेला ही परभव में जाता है और अकेला ही उत्पन्न होता है, तो भी ममता के वशीभूत होकर सभी सम्बन्धों की कल्पना करता है। बहिरात्मा संयोग - सम्बन्ध को सत्य मानकर मेरे माता-पिता, मेरे भाई, मेरी बहन, मेरी पत्नी, मेरे लड़के, मेरी लड़की, ये मेरे मित्र, ये मेरे जातिबंधु और ये मेरे परिचितजन हैं- इस तरह संबंध बढ़ाता जाता है तथा उनके संयोग या वियोग होने पर सुखी या दुःखी होता है। धन के लिए कई प्रकार के आरंभ समारंभ करता है । उपाध्याय यशोविजयजी ने कहा है कि जो बहिरात्मा है तथा ममता और मिथ्यात्व के अंधकार से युक्त है, वह अंधा है, लेकिन जन्मांध से भिन्न प्रकार का है, क्योंकि वह जो नहीं है, उसे देखता हैं, अर्थात् जो जिस स्वरूप में नहीं है, उसे उस स्वरूप में देखता है, जैसे देह को आत्मस्वरूप मानता है, किंतु जो जन्मांध है, वह तो जो है और जो नहीं है- दोनों को देख ही नहीं पाता है। जो वस्तु जिस स्वरूप में न हो उसे उस स्वरूप में देखना ही मिध्यात्व है, वही बहिरात्मा है। जन्मांध व्यक्ति तो किसी ज्ञानी के संयोग से वस्तु के यथार्थस्वरूप को जानकर समझ सकता है, किन्तु बहिरात्मा तो चर्मचक्षु से देखते हुए भी वस्तुस्वरूप का दर्शन विपरीत रूप में करता है ।
६५५ ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचंद्र ने भी त्रिविधआत्मा का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए बहिरात्मा का लक्षण इस प्रकार कहा है कि जिस जीव को अज्ञानता के कारण आत्मस्वरूप का यथार्थ बोध नहीं होने से शरीरादि परपदार्थों के विषय में आत्मबुद्धि हुआ करती है, अर्थात् जो आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ होकर शरीर को आत्मा और उससे सम्बद्ध अन्य सब ही परपदार्थों स्त्री, पुत्र, धनादि को अपना मानता है, उसे बहिरात्मा जानना चाहिए। उसकी चेतना, विवेक, बुद्धि मोहरूपी मदिरा के द्वारा नष्ट कर दी गई है। जैसे धतूरे का पान करने पर व्यक्ति को नशा चढ़ जाता है, उसे सफेद वस्तु भी पीली दिखाई देती है, उसी
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एकः परभवे याति जायते चैक एव हि । ममतोद्रेकतः सर्व संबंधं कल्पयत्यथ ॥ ५ ॥ माता पिता में भ्राता में भगिनी वल्लभा च मे ।
पुत्राः सुता में मित्राणि ज्ञातयः संस्तुताश्च मे ।।७।।
ममतान्धो हि यन्नास्ति तत्पश्यति न पश्यति ।
जात्यंधस्तु यदस्त्येतद्भेद इत्यनयोर्महान् ।।१२।। - ममत्वत्यागाधिकार- ८ - अध्यात्मसार आत्मबुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मविभ्रमात् ।
बहिरात्मा स विज्ञेयो मोहनिद्रास्तचेतनः । । ६ । । शुद्धोपयोगविचार-२६-ज्ञानार्णव
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