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३४४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
बहिरात्मा संकल्प-विकल्पों के जाल में उलझा हुआ आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान से युक्त होता है। मोक्षप्राभृत ६५० में आचार्य कुन्दकुन्द ने बहिरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है- "बाह्य पदार्थों में जिसका मन स्फुरित हो रहा हो तथा इन्द्रियों के विषयों में डूबकर जो निजस्वरूप से च्युत हो गया होऐसा मुददृष्टि पुरुष, जो अपने शरीर को ही आत्मा समझता है, वह बहिरात्मा कहलाता है।"
कार्तिकेयानुप्रेक्षा ६५” में बहिरात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है- “जो बाह्य परद्रव्य को आत्मा मानता हैं, अर्थात जो शरीर को ही आत्मा मानता है, वह बहिरात्मा है। बहिरात्मा मिथ्यात्व से युक्त और भेदज्ञान से रहित होता है। अनंतानुबंधी कषाय का अनुसरण करते हुए वह आवेश, अहंकार, छलकपट और असंतोष का शिकार होता है। देह आदि समस्त परद्रव्यों में अहंकार और ममकार से युक्त होता हुआ बहिरात्मा कहलाता है।"
देह, माता-पिता, धन आदि संयोगजन्य हैं, किन्तु मोह के अधीन हुआ बहिरात्मा इन परद्रव्यों पर राग करता है। ६५२
परमात्मप्रकाश६५३ में योगीन्दुदेव ने आत्मा के तीन भेदों की चर्चा करते हुए बहिरात्मा का लक्षण बताते हुए कहा है कि देह को आत्मा समझता है, वह बहिर्मुखी मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा होता है। अज्ञानतावश पर पदार्थ में ही उसकी
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बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरुबचुओ। णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ। - मोक्षप्राभृत्-अष्टप्राभृत-आ. कुन्दकुन्द मिच्छत्तपरिणदप्पा तिव्वकसाएण सुट्ठ आविट्ठो। जीवं देहं एक्कं, मण्णतो होदि बहिरप्पा ।।१६३ ।। -लोकानुपेक्षा -कार्तिकेयानुप्रेक्षा-स्वामी कार्तिकेय देहाविउ जे परिकहिया ते अप्पाणु मुणेइ। सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसारु भनेइ ।।१०। योगसार -योगीन्दुदेव मूद वियखणु बंभु परु अप्पा ति -विहु हवेइ। देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूदु हवेइ ।।१३।। परमात्मप्रकाश -योगीन्दुदेव
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