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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३४३ ३. गुणों के प्रति द्वेष- सद्गुणों और गुणीजनों के प्रति उसे द्वेष रहता है। दूसरे शब्दों में, उसे सदाचरण, व्रत तप, त्याग के प्रति अरुचि होती है। ४. आत्मा का अज्ञान - शरीर में शरीर से भिन्न आत्मतत्त्व रहा हुआ है। इस पर उसे विश्वास नहीं होता है। आत्मस्वरूप का उसे ज्ञान नहीं होता है। वह पाप का पक्षपाती होता है तथा प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान पर होता है। उ. यशोवियजजी ने अपने अन्य ग्रन्थों में भी त्रिविधआत्मा का स्वरूप बताया है। गीता ६४८ में शुक्लमार्ग और कृष्णमार्ग की चर्चा की गई है। उसमें कृष्णमार्ग या पितृयानमार्ग से गमन करने वाले जीव अज्ञान से मोहित रहते हैं। यह अंधकार से युक्त मार्ग है, अतः इस मार्ग के अनुगामी जन्म-मरण करते रहते हैं। इस प्रकार कृष्णपक्षी जीव का स्वरूप बहुत कुछ सीमा तक बहिरात्मा के स्वरूप से मिलता है। शुक्लमार्गी जीव का स्वरूप अन्तरात्मा से मिलता है। नियमसार के निश्चयपरमावश्यकाधिकार में आचार्य कुन्दकुन्द ने बहिरात्मा के स्वरूप को बताते हुए कहा है कि बहिरात्मा देह - इन्द्रिय आदि में आत्मबुद्धि वाला होता है तथा स्वात्मनुष्ठान रूप आवश्यक कर्म से रहित होता है। आ. कुन्दकुन्द ने यहाँ तक कहा है कि आत्मातत्त्व को भूलकर, पौद्गलिक सुख की आकांक्षा से युक्त, सत्कार आदि की प्राप्ति का लोभी, धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान से रहित होकर जो जीव स्वाध्याय, तप, प्रत्याख्यान आदि करता है, वह द्रव्य लिंगधारी, द्रव्यश्रमण भी बहिरात्मा होता है। उन्होंने आगे कहा है कि निश्चय और व्यवहार - इन दो नयों से प्रणीत जो परम आवश्यक क्रिया है, उससे जो रहित हो, वह बहिरात्मा है।६४६ ६४८. EL शुक्ल कृष्ण गती ह्येते जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ।। २६ ।। गीता, अध्ययन आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा | १४६ ॥ अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा ||१५० ।। निश्चयपरमावश्यकाधिकार - नियमसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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