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________________ ३४२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री रहता है। स्वभाव को भूलकर विभाव में ही विचरण करता है। इस प्रकार स्वस्वरूप की विस्मृति और पर में स्व का आरोपण ही बहिरात्मभाव है। बहिरात्मा की जीवनशैली वस्तुतः भौतिकवादी होती है । “खाओ - पीओ और मौज करो" - इस सिद्धान्त पर वह चलता है। भारतीय दर्शनों में हम चार्वाकदर्शन को बहिरात्म-दर्शन कह सकते हैं। इसका सिद्धान्त है जब तक जीओ, सुख से जीओ। ऋण पीओ, मौज करो। इस देह के भस्मीभूत होने पर, वाला नहीं है । बहिरात्मा विषयों और कषायों में व्यतीत करता है । यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः । ' ६४६ ६४६ ६४७ करके भी घी पीओ। खाओ, राख होने पर फिर जन्म होने गृद्ध होकर अपने जीवन को उपाध्याय यशोविजयजी ने बहिरात्मा के मुख्य चार लक्षण बताए हैं 9. विषयकषाय के आवेश से युक्त - बहिरात्मा विषयकषाय में डूबा हुआ रहता है । वह कस्तूरीमृग की तरह आत्मा में सुख-शोधन के बजाए बाह्य पदार्थों में ही सुख की खोज करता है। वह पुद्गलानंदी तथा भवाभिनंदी होता है। वह स्वयं की देह, स्वजन, संपत्ति, पद, प्रतिष्ठा को ही सर्वस्व मानता है । पाँचों इन्द्रियों के विषयों में उसे गहरी आसक्ति होती है। दिन-रात भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करता है। उसके क्रोधादि कषाय भी उग्र होते हैं और कषायों को वह अनुचित भी नहीं मानता है। उसका जीवन मोह व अज्ञान से युक्त तथा वासनामय होता है।' ६४७ २. तत्त्व में अश्रद्धा - बहिर्मुखी जीवों को आत्मा, परमात्मा तथा उनके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों में रुचि नहीं होती है; श्रद्धा नहीं होती है । रत्नत्रय की साधना से भी उसका कोई लेना-देना नहीं होता है। Jain Education International. चार्वाकदर्शन विषयकषायावेशः तत्त्वाश्रद्धा गुणेषु च द्वेषः । आत्माऽज्ञानं च यदा बाह्यात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ।। २२ ।। - अनुभवाधिकार, २०, अध्यात्मसार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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