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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३४१
अन्तरात्मा में अविरतसम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानक से बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानक तक के जीव आते हैं, अतः चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानक तक आठों आत्माओं की सत्ता रहती है, किंतु बारहवें गुणस्थानक में कषायात्मा का अभाव होने से सात की ही सत्ता होती है। अतः अन्तरात्मा में आठ या सात की सत्ता होती है। बहिरात्मा में मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शनादि की अपेक्षा से आठों ही आत्माओं की सत्ता रहती है।
साधना की दृष्टि से हम इन्हें क्रमशः पतित अवस्था, साधक अवस्था और सिद्धावस्था भी कह सकते हैं। डॉ. सागरमल जैन ने नैतिकता के आधार पर इन तीन अवस्थाओं का चित्रण किया है, जिन्हें १. अनैतिकता की अवस्था २. नैतिकता की अवस्था ३. अतिनैतिकता की अवस्था कहा है। इनमें प्रथम अवस्था वाला बहिरात्मा व्यक्ति दुराचारी या दुरात्मा है। द्वितीय अवस्था वाला अन्तरात्मा सदाचारी या महात्मा है। पण्डित सुखलालजी ने इन त्रिविधआत्माओं को - १. आध्यात्मिक अविकास की अवस्था २. आध्यात्मिक विकासक्रम की अवस्था ३. आध्यात्मिक पूर्णता या मोक्ष की अवस्था कहा है । ६४५ इन्हें अविकसित, विकासशील और पूर्णविकसित अवस्था भी कह सकते हैं।
चरमावर्त के पूर्व का अचरमार्वत का काल अविकसित अवस्था का काल होता है। अचरमावर्तकाल में जीव को आत्मा, परमात्मा आदि परमतत्त्वों का ज्ञान ही नहीं होता है। चरमावर्तकाल या चरमपुद्गलपरावर्तकाल में जीव को धर्म की प्राप्ति होती है और वह क्रमशः विकास करता हुआ परमात्मा की अवस्था को प्राप्त करता है।
अब हम देखेंगे की विभिन्न ग्रन्थों में आचार्यों ने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरूप किस प्रकार बताया है, तथा किन-किन साधनों से जीव बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मा बन सकता है ?
बहिरात्मा का स्वरूप यह जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है और अज्ञानता के कारण जड़भोगी जीव जड की अधीनता को स्वीकार करता है। भौतिक सुख सुविधा पौद्गलिक साधन उसे जिस रूप में और जितने मिले हैं, उसी के आधार पर वह अपने-आपको श्रेष्ठ मानता है तथा उस पर अपना स्वामित्व स्थापित करता है । वह बाह्य पौद्गलिक सुख-सुविधा में रचा-पचा
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६४५ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन', भाग २, पृ. ४४७
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