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________________ ३४०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री आचारांग में मुक्त आत्मा के स्वरूप का विवेचन भी उपलब्ध होता है। उसे विमुक्त, पारगामी तथा तर्क और वाणी से अगम्य बताया गया है।"६३६ ___आनन्दघनजी६४० एवं देवचंद्रजी६४१ की रचनाओं में भी आत्मा के तीनों प्रकारों का उल्लेख मिलता है। गीता में इन्हें कृष्णपक्षी और शुक्लपक्षी के रूप में वर्णित किया गया है। उपनिषद्कालीन चिन्तन में प्रायः आत्मा के दो रूपों की चर्चा उपलब्ध होती है१. बहिःप्रज्ञ २. अन्तःप्रज्ञ। इन दोनों प्रकार की जीवनदृष्टियों को ईशावास्योपनिषद् में- १. अविद्या और २. विद्या के रूप में वर्णित किया गया है। लक्षणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि बहिःप्रज्ञ वह है, जो भौतिक साधनों को ही प्रधान मानता है। कंचनकामिनी काया में रत रहकर जीवन-यापन करता है तथा उसमें अहम् और मम की प्रधानता होती है। अन्तःप्रज्ञ का लक्षण अन्तरात्मा के समान ही बताया है। अन्तरात्मा के केन्द्र में आत्मा रहती है। वह आत्मा को प्रधान मानकर उसके स्वरूप को प्रकट करने के लिए प्रयासरत रहता है। ___ कठोपनिषद् ६४२, छान्दोग्योपनिषद् ६४३ तैत्तरीयोपनिषद् ६४४ आदि में भी आध्यात्मिक-विकास की दृष्टि से आत्मा के विभिन्न स्तर बताएँ गए हैं, जिसके लक्षण त्रिविधआत्मा के समान ही है। भगवतीसूत्र में आत्मा के आठ प्रकार बताए गए हैं, जिनका सम्बन्ध भी त्रिविधआत्मा से है। ये आठ प्रकार निम्न हैं १. द्रव्यात्मा २. उपयोगात्मा ३. ज्ञानात्मा ४. दर्शनात्मा ५. चरित्रात्मा ६. वीर्यात्मा ७. योगात्मा ८. कषायात्मा। योगात्मा और कषायात्मा को छोड़कर शेष छः ही प्रकार की आत्माएँ सिद्ध परमात्मा में होती हैं, क्योंकि अनंतचतुष्टय की अपेक्षा से सिद्धपरमात्मा में ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा, वीर्यात्मा तो घटित होती है और आत्मद्रव्य तथा उसका लक्षण उपयोग की अपेक्षा से द्रव्यात्मा और उपयोगात्मा भी है। अरिहंत परमात्मा में शरीर होने से योगात्मा भी होती है, इस तरह अरहंत परमात्मा में सात की सत्ता होती है। ६४०. ६२६. 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन', भाग २, पृ. ४४७ आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ६७ एवं सुमतिजिनस्तवन विचाररत्नसार प्रश्न १७८ (ध्यानदीपिका चतुष्पदी ४, ८, ७) कठोपनिषद्, ३/१३ छान्दोज्ञोपनिषद्, ३०८, ७-१२ तैत्तरीयोपनिषद् ३/१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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