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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३३६ की अवधारणा मिलती है। आचार्य शुभचन्द्रजी के ज्ञानार्णव ६३६ में भी इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र ६५७ में त्रिविधआत्मा की चर्चा की है। ___अध्यात्मसार६३८ में उ. यशोविजयजी ने बहिरात्मा का मुख्य लक्षण बताते हुए कहा है कि वह देह में आत्मबुद्धि वाला होता है, वह शरीरस्तर पर ही जीवन जीता है। काया में साक्षी की तरह रहा हुआ वह आत्मा अंतरात्मा है और जो काया आदि की सर्वउपाधि से मुक्त है, वह परमात्मा है। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव बहिरात्मा ही होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में भी बड़े भाग में जीव बहिरात्मा ही होते हैं, अर्थात् देह के स्तर पर जीने वाले ही होते है। संसार में हमेशा बहिरात्मा की अपेक्षा अंतरात्मा जीव कम ही होते हैं और अंतरात्मा से परमात्मा बनने वाले जीव उससे भी कम होते हैं। सामान्यतः मिथ्यादृष्टि को बहिरात्मा, सम्यग्दृष्टि, देशविरत श्रावक एवं सर्वविरत मुनि को अंतरात्मा और वीतराग केवली और सिद्धों को परमात्मा के रूप में वर्णित किया जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान में भी व्यक्तित्त्व का जो वर्गीकरण किया गया है, उसमें अन्तर्मुखी एवं बहिर्मुखी व्यक्तित्त्व का जो स्वरूप बताया गया है, वह कुछ सीमा तक बहिरात्मा और अन्तरात्मा के समान है। इस अवधारणा के बीज हमें आचारांग जैसे प्राचीनतम आगम में भी उपलब्ध होते हैं। आचारांग में यद्यपि स्पष्ट रूप से बहिरात्मा, अन्तरात्मा जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं है, किंतु उसमें इन तीनों ही प्रकार के आत्माओं के लक्षणों का विवेचन उपलब्ध हो जाता है। बहिर्मुखी आत्मा को आचारांग में बाल, मन्द या मूढ़ के नाम से वर्णित किया गया है। ये आत्माएँ ममत्व से युक्त होती हैं और बाह्य विषयों में रस लेती हैं। अन्तर्मुखी आत्मा को पण्डित, मेधावी, धीर सम्यक्त्वदर्शी और अनन्यदर्शी के नाम से चित्रित किया गया है। अनन्यदर्शी शब्द ही उनकी अन्तर्मुखता को स्पष्ट कर देता है। इनके लिए मुनि शब्द का प्रयोग भी हुआ है। पापविरत एवं सम्यग्दर्शी होना ही अन्तरात्मा का लक्षण है। इसी प्रकार ६३७. ६३६. ज्ञानार्णव -शुद्धोपयोगविचार गाथा ५, ६, ७, ८ योगशास्त्र द्वादश गाथा ७-८ ६३८. कायादिर्बहिरात्मा, तदधिष्ठातान्तरात्मतामेति। गतनिःशेषोपाधिः परमात्मा कीर्तितस्तज्ज्ञै ।।२१।। अनुभवाधिकार -अध्यात्मसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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