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३३८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
अष्टम अध्याय आत्मा की आध्यात्मिक-विकास-यात्रा
आत्मा ही परमात्मा है, किंतु जीव अपने परमात्मास्वरूप को भूलकर मोह और अज्ञान की परतंत्रता के कारण संसार के सुखों में मग्न है। संसार के पाँच इन्द्रियों के विषय सुख के परिणाम अनेक प्रकार से दुःख देने वाले हैं। विषयसुखों को प्राप्त करने में दुःख, प्राप्त हुए सुख का रक्षण करने में दुःख और वियोग होने पर अपार वेदना है। ये सुख अनेक प्रकार के दुःखों से युक्त हैं। उ. यशोविजयजी द्वारा विषयाभिमुखी प्रवृत्ति के दुष्परिणाम बताते हुए ज्ञानसार में कहा गया है कि पतंगिया भ्रमर मत्स्य हाथी और हिरण ये एक-एक इन्द्रियों में आसक्त होकर जब दुर्दशा को प्राप्त करते हैं तो जो पाँच इन्द्रियों में आसक्त है उसकी क्या दशा होगी? या अतः भ्रमजालरूपी सांसारिक सुखों में से प्रीति कम करके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन और अनंत चारित्रादि आत्मीय गुणों पर प्रीति बढ़े तथा आत्मा परमात्मपद की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करे- इस लक्ष्य से आत्मा की तीन अवस्थाओं का चित्रण उ. यशोविजयजी ने अपने ग्रन्थों में किया है।
अध्यात्मसार६३२, योगावतारद्वात्रिंशिका६३३, अध्यात्मपरीक्षा६३४ आदि ग्रंथों में उन्होंने १. बहिरात्मा २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा इन त्रिविधआत्मा की चर्चा की है।
त्रिविधआत्मा की चर्चा आगमयुग के पश्चात् लगभग पाँचवी शताब्दी से उपलब्ध होने लगती है। सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द६३५ के गन्थों में त्रिविधआत्मा
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५२. पतङ्गभृगमीनेभसारमा यान्ति दुर्दशाम् ।
एकैकेन्द्रियदोषाच्चेद् दुष्टैस्तैः किं न पंचभिः ।।७।। ज्ञानसार अनुभवाधिकार-अध्यात्मसारगाथा योगावतार द्वात्रिंशिका, श्लोक -१७ (क) नियमसार गाथा १४६-५० (ख) मोक्षप्राभृत, ४
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