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३०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
कालधर्म उपाध्याय यशोविजयजी का कालधर्म डभोई में हुआ था, यह निर्विवाद सत्य है, परंतु इनके स्वर्गवास का निश्चित माह और तिथि जानने को नहीं मिलती।
डभोई के गुरुमंदिर की पादुका के लेख के आधार पर पहले इनकी स्वर्गवास-तिथि संवत् १७४५ मार्गशीर्ष शुक्ल ११ (मौन एकादशी) मानते थे। परंतु पादुका में लिखी हुई वर्ष-तिथि उपाध्यायजी के स्वर्गवास की नहीं, पादुका की प्रतिष्ठा की है। सुजसवेलीभास के आधार पर यशोविजयजी का संवत् १७४३ का चातुर्मास डभोई में हुआ और वहाँ अनशन करके उन्होंने अपनी काया को छोड़ा। इसमें भी निश्चित माह और तिथि नहीं बताई गई है। जैन साधुओं का चातुर्मास आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक शुक्ल चतुर्दर्शी तक रहता है। अब इनका स्वर्गवास चातुर्मास के दौरान ही हुआ, या चातुर्मास के बाद, यह ज्ञात नहीं होता है। यशोविजयजी ने कितनी ही कृतियों में रचना वर्ष बताए हैं। उसमें सबसे अंत में १७३६ में खंभात भण्डार से 'जंबुस्वामी रास' की रचना प्राप्त होती है। सुरत में चातुर्मास के समय रची प्रतिक्रमण हेतु गर्भित स्वाध्याय और ग्यारहअंग की स्वाध्याय- इन दो कृतियों में रचना वर्ष “युग युग मुनि विधुवत्सराई"- इस प्रकार सूचित है। इसमें यदि युग यानी 'चार' माना जाए तो संवत् १७४४ होता है और युग यानी 'दो' लेते हैं, तो संवत १७२२ होता है, परंतु यहाँ संवत् १७४४ सुसंगत नहीं लगता है। इसका कारण यह है कि १७४३ डभोई का चातुर्मास इनका अंतिम चातुर्मास था। जब तक दूसरे कोई प्रमाण नहीं मिलें, तब तक संवत् १७४३ डभाई में उपाध्याय यशोविजयजी का स्वर्गवास हुआ था, यह मानना अधिक योग्य लगता है।
उपाध्याय यशोविजयजी के व्यक्तित्व के विशिष्ट गुण
उपाध्याय यशोविजयजी के व्यक्तित्त्व में गुरुभक्ति, तीर्थभक्ति, श्रुतभक्ति, संघभक्ति, शासनप्रीति, अध्यात्म-रसिकता, धीर-गंभीरता, उदारता, त्याग, वैराग्य, सरलता, लघुता, गुणानुराग इत्यादि अनेक गुणों के दर्शन होते हैं।
६. सत्तर त्रयालि चौमासु रह्य, पाट नगर डभोईर, तिहां सुरपदवी अणसरी
अणसरी करि पातक धोई रे, - सुजसवेलीभास
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