________________
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २६
दीपाया कि उपाध्याय पदवी रूप में न रहकर उनके नाम की पर्याय बन गयी । उपाध्याय महाराज यानी यशोविजयजी यह प्रचलित हो गया ।
उपाध्याय यशोविजयजी की विद्वत्ता से खंभात के पंडितों का परिचय
17
एक दंतकथा के आधार पर यशोविजयजी उपाध्याय की पदवी के बाद अपने गुरु और शिष्यों के साथ खंभात आए। वहाँ आकर थोड़े समय यशोविजयजी स्वयं के लेखन और स्वाध्याय में मग्न हो गए। व्याख्यान देने का काम दूसरे युवा साधुओं को सौंपा गया। हिन्दू पंडित व्याख्यान में आकर बीच-बीच में भाषा व्याकरण सिद्धांत आदि के विषय में विवाद खड़ा करके जोर शोर से साधु महाराज से प्रश्न करते और व्याख्यान का रस भंग कर देते, इसलिए एक दिन यशोविजयजी स्वयं व्याख्यान देने आए। जैसे ही व्याख्यान शुरु हुआ और पंडितों ने जोर-जोर से प्रश्न पूछना शुरु किया, तब उपाध्याय यशोविजयजी ने मृदु स्वर में कहा “महानुभावों, आपके प्रश्नों से मुझे बहुत आनंद होता है, परंतु आप मेरे पास आकर व्यवस्थित रीति से सवाल करें। उन्होंने प्रवाही सिंदूर एक कटोरी में मंगवाया और कहा - " हम सभी नीचे के होंठ पर सिंदूर लगाकर ओष्ठस्थानी व्यंजन ( प, ब, भ, म ) बोले बिना चर्चा करेंगे। चर्चा के दौरान जो औष्ठस्थानी व्यंजन बोलेगा, उसके ऊपर का औष्ठ नीचे के औष्ठ सिंदूर वाला हो जाएगा और वह हार जाएगा । " पण्डितों के चेहरे का रंग उड़ गया। उन्होंने शर्त स्वीकार नहीं की, क्योंकि उनके लिए औष्ठ व्यंजन बोले बिना बातचीत करना अशक्य था। उन्होंने दलील दी कि हम यहाँ शास्त्रार्थ करने आए हैं, भाषा पर पांडित्य बताने नहीं । यशोविजयजी उनकी मुश्किल समझ गए। तब यशोविजयजी ने कहा कि मैंने यह शर्त रखी है, इसलिए मुझे तो पालन करना ही चाहिए आप इससे मुक्त रहेंगे। अब पंडित एक के बाद एक प्रश्न करने लगे यशोविजयजी अपने नीचे के औष्ठ पर सिंदूर लगाकर उनके प्रश्नों का उत्तर देते गए । पण्डित शास्त्रचर्चा करते थे, परंतु उनका ध्यान यशोविजयजी के औष्ठ पर ही था । यशोविजयजी की वाणी अस्खलित बह रही थी, लेकिन उसमें एक भी औष्ठस्थानी व्यंजन नहीं आया था। शास्त्रार्थ करने में भी पण्डित बहुत देर टिक नहीं सके। वे आश्चर्यचकित रह गए और अंत में उन्होंने हार स्वीकार कर ली। सूर्य के सामने जुगनू का प्रकाश क्या महत्त्व रखता है ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org